महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 83-98
नवनवत्यधिकशततम (199) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
अथवा यदि आपकी इच्छा न हो तो हमें साथ रहकर कर्म फल भोगने की आवश्यकता नहीं है । उस अवस्था में मैं यही प्रार्थना करूँगा कि यदि आपका मुझ पर अनुग्रह हो तो आप ही मेरे शुभकर्मो का पूरा-पूरा फल ग्रहण कर लें। मैंने जो कुछ भी धर्म किया है, वह सब आप स्वीकार कर लें। भीष्म्ाजी कहते हैं – राजन् ! इसी समय वहॉ विकराल वेषधारी दो पुरूष उपस्थित हुए। दोनों एक दूसरेको पकड़कर अपने हाथों से आवेष्टित कर रखा था । दोनों के शरीर पर मैले वस्त्र थे (उनमें से एक का नाम विकृत था और दूसरे का नाम विरूप )। वे दोनों बारंबार इस प्रकार कह रहे थे। एक ने कहा – भाई ! तुम्हारे ऊपर मेरा कोई ऋण नहीं है । दूसरा कहता –नहीं, मैं तुम्हारा ऋणी हॅू । पहले ने कहा –यहॉ जो हम दोनों का विवाद है, इसका निर्णय ये सबका शासन करनेवाले राजा करेंगे। दूसरा बोला –मैं सच कहता हॅू कि तुम पर मेरा कोई ऋण नहीं है । पहले ने कहा – तूम झूठ बोलते हो । मुझ पर तुम्हारा ऋण है। तब वे दोनों अत्यन्त संतप्त होकर राजा से इस प्रकार बोले – आप हमारे मामले की जॉच-पड़ताल करके फैसला कर दें, जिससे हम दोनों यहॉ दोष के भागी और निन्दा के पात्र न हों। विरूप बोला – पुरूषसिंह ! मैं विकृत के एक गोदान का फल ऋण के तौर पर अपने यहॉ रखता हॅू । पृथ्वीनाथ ! उस ऋण को आज मैं दे रहा हॅू; परंतु यह विकृत ले नहीं रहा है। विकृत ने कहा – नरेश्वर ! इस विरूप पर मेरा कोई ऋण नहीं हैं । यह आपसे झूठ बोलता है । इसकी बात में सत्य का आभासमात्र है। राजा बोले – विरूप ! तुम्हारे ऊपर विकृत का कौन सा ऋण है । बताओ, मैं उसे सुनकर कोई निर्णय करूँगा । मेरे मन का ऐसा ही निश्चय हैं। विरूप बोला - राजन् ! नरेश्वर ! आप सावधान होकर सुने, राजर्षे ! इस विकृत का ऋण जिस प्रकार मैं धारण करता हॅू, वह सब पूर्णरूप से बता रहा हॅू। निष्पाप राजर्षे ! इसने धर्म की प्राप्ति के लिये एक तपस्वी और स्वाध्यायशील ब्राह्राण को एक दूध देनेवाली उत्तम गाय दी थी। राजन् ! मैंने इसके घर जाकर इससे उसी गोंदान का फल मॉगा था और विकृत ने शुद्ध ह्रदय से मुझे वह दे दिया था। तदनन्तर मैने भी अपनी शुद्धि के लिये पुण्यकर्म किया । राजन् ! दो अधिक दूध देनेवाली कपिला गौऍ, जिनके साथ उनके बछड़े भी थे, खरीदकर उन्हें मैंने एक उच्छवृत्तिवाले ब्राह्राण को विधि और श्रद्धापूर्वक दे दिया। प्रभो ! उसी गोदान का फल मैं पुन: इसे वापस करना चाहता हॅू। पुरूषसिंह ! इससे एक गोदान का फल लेकर आज मैं इसे दूना फल लौटा रहा हॅू । ऐसी परिस्थिति में आप स्वयं निर्णय कीजिये कि हम दोनों मे से कौन शुद्ध है और कौन दोषी ? नरेश्वर ! इस प्रकार आप में विवाद करते हुए हम दोनों यहॉ आपके समीप आये हैं । आप निर्णय कीजिये । अब आप चाहे न्याय करें या अन्याय । इस झगड़े का निपटारा कर दें । हम दोनों को विशिष्ट न्याय के मार्गपर लगा दें। इसने जिस तरह मुझे दान दिया है, उसी तरह यदि स्वयं भी मुझसे लेना नहीं चाहता है तो आप स्वयं सुस्थिर होकर हम दोनों को धर्मके मार्गपर स्थापित कर दें।
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