महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 242 श्लोक 1-12
द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततम (242) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
आश्रमधर्म की प्रस्तावना करते हुए ब्रह्माचर्य आश्रम का वर्णन
शुकदेवजी ने पूछा – पिताजी ! क्षर अर्थात प्रधान से जो चौबीस तत्वों वाली सामान्य सृष्टि हुई है तथा शब्द आदि विषयों सहित जो इन्द्रियॉ हैं, उनकी सृष्टि बुद्धि के सामर्थ्य से हुई है, अत: यह अतिसर्ग असाधारण सृष्टि है । बन्धनकारी होने के कारण इसे प्रमुख या प्रबल माना गया है, यह दोनों प्रकार की सृष्टि पुरूष के संविधान से, प्रकृति से उत्पन्न हुई है; यह सब मैंने पहले सुन लिया है। अब पुन: इस संसार में प्रत्येक युग के अनुसार जो शिष्ट पुरूषों की आचार परम्परा रही है तथा जिसके अनुकूल सत्पुरूषों का बर्ताव होता आया है, उसका मैं भी अनुसरण करना चाहता हॅू। वेद में ‘कर्म करो’ और ‘कर्म छोड़ों’– ये दोनों बातें कही गयी हैं । मैं इनका तात्पर्य कैसे समझॅू ? जिससे इनका विरोध हट जाय। आप इस विषय की व्याख्या करें। मैं आप जैसे गुरू के उपदेश से पवित्र हो गया हॅू तथा मुझे जगत के वृत्तान्त (लौकिक नीति-रीति) का भी ज्ञान हो गया है; अत: धर्माचरण से बुद्धि का संस्कार करके स्थूल देह का अभिमान त्यागकर अपने अविनाशीस्वरूप परमात्मा का दर्शन करूँगा। व्यास जी ने कहा – बेटा ! पूर्वकाल में साक्षात् ब्रह्माजी ने जिस आचार व्यवहार का विधान कर दिया है, पहले के सत्पुरूष तथा ऋषि महर्षि भी उसी का पालन करते आ रहे हैं। परम ऋषियों ने ब्रह्माचर्य के पालन से ही उत्तम लोकों पर विजय पायी है; अत: मन ही मन अपने कल्याण की इच्छा रखकर पहले ब्रह्माचर्य का पालन करें। (फिर वानप्रस्थ धर्म का आश्रय ले) वन में फल मूल खाकर रहे, भारी तपस्या में तत्पर हो जाय, पुण्यतीर्थों में भ्रमण करे और किसी भी प्राणी की अपने द्वारा हिंसा न होने दे। इसके बाद संन्यायी होकर यथासमय भिक्षा से जीवन निर्वाह करते हुए भिक्षा के लिये ‘वानप्रस्थी‘ के आश्रम पर उस समय जाना चाहिये, जब कि मूसल से धान कूटने की आवाज न सुनायी पडे़ और रसोईघर से धॅूआ निकलना बंद हो जाय । इस प्रकार जीवन बिताने वाला संन्यासी ब्रह्माभाव को प्राप्त होने में समर्थ होता है। शुकदेव ! तुम भी स्तुति और नमस्कार से अलग रहकर शुभाशुभ कर्मों का परित्याग करके जो कुछ फल-फूल मिल जाय, उसी से भूख मिटाते हुए वन में अकेले विचरते रहो। शुकदेव ने पूछा –पिताजी ! ‘कर्म करो’ और ‘कर्म छोड़ो’ ये जो वेद के दो तरह के वचन हैं, लोकदृष्टि से विचार करने पर परस्पर विरूद्ध जान पड़ते हैं। ये प्रामाणिक हैं या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक है तो परस्पर विरोध रहते हुए शास्त्रवचन कैसे माना जा सकता है तथा दोनों ही प्रामाणिक कैसे हो सकते हैं ? यह सब मैं सुनना चाहता हॅू; साथ ही यह भी बताइये कि कर्मों का विरोध किये बिना मोक्ष की प्राप्ति किस तरह हो सकती है ? भीष्मजी कहते है- युधिष्ठिर! उनके इस प्रकार पूछने पर गन्धवती (सत्यवती) के पुत्र महर्षि व्यास ने अपने अमित तेजस्वी पुत्र के वचन का आदर करते हुए उससे इस प्रकार कहा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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