महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 244 श्लोक 14-27
चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततम (244) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
उन मनीषी पुरूषों के लिये ये तथा और भी बहुत से नाना प्रकार के नियम शास्त्रों में बताये गये हैं । चौथे संन्यास आश्रम में विहित जो उपनिषद् प्रतिपादित शम, दम, उपरति, तितिश्रा और समाधानरूप धर्म है, वह सभी आश्रमों के लिये साधारण माना गया है, उसका पालन सभी आश्रम वालों को करना चाहिये; किंतु चौथे आश्रम संन्यास का विशेष धर्म है, वह वानप्रस्थ और गृहस्थ से भिन्न है। तात ! इस युग में भी सर्वार्थदर्शी ब्राह्माणों ने इस वानप्रस्थ धर्म का पालन एवं प्रसार किया। अगस्त्य, सप्तर्षिगण, मधुच्छन्द, अघमर्षण, सांस्कृति, सुदिवा, तण्डि, यथावास, अकृतश्रम, अहोवीर्य, काव्य (शुक्राचार्य), ताण्डय, मेधातिथि, बुध, शक्तिशाली कर्ण निर्वाक, शून्यपाल और कृतश्रम- इन सबने इस धर्म का पालन किया, जिससे ये सभी स्वर्गलोक को प्राप्त हुए। तात ! जिनकी तपस्या उग्र है, जिन्होंने धर्म की निपुणता को देखा और अनुभव किया है, उन ऋषियों के यायावर नामक गण भी वानप्रस्थी हैं, जिन्हें धर्म के फल का प्रत्यक्ष अनुभव है वे तथा और भी असंख्य वनवासी ब्राह्माण, बालखिल्य और सैकत नाम वाले दूसरे मुनि भी वैखानस (वानप्रस्थ) धर्म का पालन करने वाले हैं। ये सब ब्राह्माण प्राय: उपवास आदि क्लेशदायक कर्म करने के कारण लौकिक सुख से रहित थे । सदा धर्म में तत्पर रहते और इन्द्रियों को वश में रखते थे । उन्हें धर्म के फल का प्रत्यक्ष अनुभव था । वे सब के सब वानप्रस्थी थे । इस लोक से जाने पर आकाश में दृष्टि गोचर होते है। इस प्रकार वानप्रस्थ की अवधि पूरी कर लेने के बाद जब आयु का चौथा भाग शेष रह जाय, वृद्धावस्था से शरीर दुर्बल हो जाय और रोग सताने लगे तो उस आश्रम का परित्याग कर दे (और सन्ंयास आश्रम ग्रहण कर ले) । संन्यास की दीक्षा लेते समय एक दिन में पूरा होने वाला यज्ञ करके अपना सर्वस्व दक्षिणा में दे डाले। फिर आत्मा की यजन, आत्मा में ही रत होकर आत्मा में ही क्रीड़ा करे । सब प्रकार से आत्मा का ही आश्रय ले । अग्निहोत्र की अग्नियों को आत्मा में ही आरोपित करके सम्पूर्ण संग्रह परिग्रह को त्याग दे और तुरंत सम्पन्न किये जाने वाले ब्रह्मायज्ञ आदि यज्ञों तथा इष्टियों का सदा ही मानसिक अनुष्ठान करता रहे । ऐसा तब तक करे, जब तक कि याज्ञिकों के कर्ममय यज्ञ से हटकर आत्मयज्ञ का अभ्यास न हो जाय। आत्मयज्ञ का स्वरूप इस प्रकार है, अपने भीतर ही तीनों अग्नियों की विधिपूर्वक स्थापना करके देहपात होने तक प्राणाग्निहोत्र की* विधि से भलीभॉति यजन करता रहे। यजुर्वेद के ‘प्राणाय स्वाहा’ आदि मन्त्रों का उच्चारण करता हुआ पहले अन्न के पांच छ: ग्रास ग्रहण करे (फिर आचमन के पश्चात्) शेष अन्न की निन्दा न करते हुए मौनभाव से भोजन करे। तदनन्तर वानप्रस्थ मुनि केश, लोम और नख कटाकर कर्मों से पवित्र हो वानप्रस्थ आश्रम से पुण्यमय संन्यास आश्रम में प्रवेश करे। जो ब्राह्माण सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान देकर संन्यासी हो जाता है, वह मरने के पश्चात तेजोमय लोक में जाता है और अन्त में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। आत्मज्ञानी पुरूष सुशील, सदाचारी और पापरहित होता है । वह इहलोक और परलोक के लिये कर्म करना नहीं चाहता । क्रोध, मोह, संधि और विग्रह का त्याग करके वह सब ओर से उदासीन सा रहता है।
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