महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 247 श्लोक 1-16

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सप्‍तचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (247) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

महाभूतादि तत्‍वों का विवेचन   शुकदेवजी ने कहा-भगवन् ! मुनिश्रेष्‍ठ ! अब पुन: मुझे अध्‍यात्‍मज्ञान का विस्‍तारपूर्वक उपदेश दीजिये । अध्‍यात्‍म क्‍या है और उसे मैं कैसे जानॅूगा ? व्‍यासजी ने कहा-तात ! मनुष्‍य के लिये शास्‍त्र में जो यह अध्‍यात्‍मविषय की चर्चा की जाती है, उसका परिचय मैं तुम्‍हे दे रहा हॅू; तुम अध्‍यात्‍मकी यह व्‍याख्‍या सुनो। पृथ्‍वी, जल, तेज, वायु और आकाश – ये पॉच महाभूत सम्‍पूर्ण प्राणियोंकेशरीर में स्थित हैं । जैसे समुद्र की लहरें उठती और विलीन होती रहती हैं, उसी प्रकार ये पॉचों महाभूत प्राणियों के शरीर के रूप में जन्‍मग्रहण करते और विलीन होते रहते हैं। जैसे कछुआ यहाँ अपनेअंगों को सब ओर फैलाकर फिर समेट लेता है, इसी प्रकार ये सारे महाभूत छोटे-छोटे शरीरों में विकृत होते-उत्‍पन्‍न और विलीन होते रहते हैं। इस प्रकार यह समस्‍त स्‍थावर जंगम जगत् पंचभूतमय ही है । सृष्टिकाल में पंचभूतों से ही सबकी उत्‍पत्ति होती है और प्रलय के समय उन्‍हीं में सबका लय बताया जाता है। यद्यपि सम्‍पूर्ण शरीरों में पॉच ही भूत हैं तथापि लोगों को उनमें से जिसमें जो वैषम्‍य दिखायी देता है, उसका कारण यह है कि सम्‍पूर्ण भूतों की सृष्टि करनेवाले ब्रह्राजी ने समस्त प्राणियों में उनके कर्मानुसार ही न्‍यूनाधिकरूप में उन भूतोंका समावेश किया है। शुकदेवजी ने पूछा-पिताजी ! देवता, मनुष्‍य, पशु और पक्षी आदि के शरीरों में विधाता ने जो वैषम्‍य किया है, उसको किस प्रकार लक्ष्‍य किया जाय ? शरीर में इन्द्रियॉ भी हैं और कुछ गुण भी हैं, उन्‍हें कैसे देखा जाय- उनमें से कौन किस महाभूत के कार्य है, इसकी पहचान कैसे हो ? व्‍यासजी ने कहा-बेटा ! मैं इस विषय का क्रमश: और यथावत् रूप से प्रतिपादन करूँगा। यह समस्‍त विषय तत्‍वत: जैसा है, वह सब तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो। शब्‍द, श्रोत्रेन्द्रिय तथा शरीर के सम्‍पूर्ण छिद्र –ये तीनों वस्‍तुऍ आकाश से उत्‍पन्‍न हुई हैं। प्राण, चेष्‍टा तथा स्‍पर्श-ये तीनों वायु के गुण (कार्य) हैं। रूप, नेत्र और जठरानल –इन तीनों रूपों में अग्नि का ही कार्य प्रकट हुआ है। रस, रसना और स्‍नेह-ये तीनों जल के कार्य है। गन्‍ध, नासिका और शरीर-ये तीनों भूमि के गुण हैं । इस प्रकार इन्द्रिय समुदाय सहित यह शरीर पाचभौतिक बताया गया है। स्‍पर्श वायु का, रस जल का और रूप तेज का गुण बताया जाता है एवं शब्‍द आकाश का और गन्‍ध भूमिका गुण माना गया है। मन, बुद्धि और स्‍वभाव (अहंभाव) – ये तीनों अपने कारणभूत पूर्वसंस्‍कारों से उत्‍पन्‍न हुए हैं । ये तीनों पाचभौतिक होते हुए भी भूतों के अन्‍य कार्य जो श्रोत्रादि हैं, उनसे श्रेष्‍ठ हैं तो भी गुणों का सर्वथा उल्‍लघंन नहीं कर पाते हैं। जैसे कछुआ यहाँ अपनेअंगो को फैलाकर फिर समेट लेता है, उसी प्रकार बुद्धि सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को विषयों की ओर फैलाकर फिर उन्‍हें वहाँ से हटा लेती है। पैरों से ऊपर और मस्‍तक से नीचे मनुष्‍य जो कुछ देखता है अर्थात् सम्‍पूर्ण शरीर को जो अहंभाव से देखना हैं, इसकार्यमें उत्तम बुद्धि प्रवृत्त होती है। तात्‍पर्य यह कि शरीर में जो अहंभाव का अनुभव है, वह बुद्धिका ही रूपान्‍तर है। बुद्धिही शब्‍द आदि गुणों को श्रोत्र आदि इन्द्रियों के पास बार-बार ले जाती है और बुद्धि ही मनसहित सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को विषयों के पास पुन:-पुन: खींच ले जाती है; य‍दि इनके साथ बुद्धि न रहे तो इन्द्रियों द्वारा शब्‍द आदि विषयों का अनुभव कैसे हो सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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