महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 248 श्लोक 1-11
अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततम (248) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरूष-विवेक व्यासजी कहते हैं – पुत्र ! कर्म करने में तीन प्रकार से प्रेरणा प्राप्त होती है । पहले तो मन संकल्पमात्र से नाना प्रकार के भाव की सृष्टि करता है, बुद्धि उसका निश्चय करती है । तत्पश्चात् हृदय उनकी अनुकूलता और प्रतिकूलता का अनुभव करता है । (इसके बाद कर्ममें प्रवृत्ति होती है)। इन्द्रियों से उनके विषय बलवान् हैं (क्योंकि वे बलात् इन्द्रियों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं), उन विषयों से मन बलवान् है (क्योंकि वह इन्द्रियों को उनसे हटाने में समर्थ है) । मन से बुद्धि बलवान् है (क्योंकि वह मन को वश में रख सकती है) और बुद्धिसे आत्मा बलवान् माना गया है (क्योंकि वह बुद्धि को सम बनाकर स्वाधीन कर सकता है)। बुद्धि प्राणियों की समस्त इन्द्रियों को अधिष्ठात्री है, इसलिये वह जीवात्मा के समान ही उनकी आत्मा मानी गयी है ।बुद्धि स्वयं ही अपने भीतर जब भिन्न–भिन्न विषयों को ग्रहण करने के लिये विकृत हो नाना प्रकार के रूप धारण करती है, तब वही मन बन जाती है। इन्द्रियॉ पृथक्-पृथक् हैं, इसलिये उनकी क्रियाऍ भी पृथक्-पृथक् हैं । अत: उन्हीं के लिये बुद्धि नानाप्रकार के रूप धारण करती है । वही जब सुनती है तो श्रोत्र कहलाती है और स्पर्श करते समय स्पर्शेन्द्रिय(त्वचा)के नाम से पुकारी जाती है। वही देखते समय दृष्टि और रसास्वादन के समय रसना हो जाती है। जब वह गन्ध को ग्रहण करती है, तब वही घ्राणेन्द्रिय कहलाती है । इस प्रकार बुद्धि ही पृथक्-पृथक् विकृत होती है। बुद्धि के इन विकारों को ही इन्द्रियॉ कहते हैं। अदृश्य जीवात्मा उन सबमें अधिष्ठितहै। बुद्धि उस जीवात्मा में ही स्थित हो सात्विक आदि तीनों भावों में रहती है। इसी हेतु से वह कभी प्रेम और प्रसन्नता लाभ करती हैं (यह उसका सात्विक भाव है) । कभी शोक में डूबती है (यह उसका राजस भाव है)। और कभी न तो सुख से युक्त होती है एवं न दु:ख से ही; उस पर मोह छाया रहता है (यही उसका तामस भाव है)। जैसे उत्ताल तंरगों से युक्त सरिताओं का स्वामी समुद्र कभी-कभी अपनी विशाल तटभूमि को भी लॉघ जाता है, उसी प्रकार यह भावात्मि का बुद्धि चित्तवृत्तियों के निरोधरूप योग में स्थित होने पर इन तीनों भावों को लॉघ जाती है। मनुष्य जब किसी वस्तु की इच्छा करता है, तब उसकी बुद्धि मन के रूप में परिणत हो जाती है । ये जो एक दूसरे से पृथक्-पृथक् इन्द्रियों के भाव हैं, इन्हें बुद्धि के ही अन्तर्गत समझना चाहिये । ‘मेधा’ कहते हैं रूप आदि के ज्ञान को, उसमें हितकर या सहायक होने के कारण इन्द्रियॉ ‘मेध्य’ कही गयी हैं । योगी को सम्पूर्ण इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। बुद्धि सम्पूर्ण इन्द्रियों में से जब जिस इन्द्रिय के साथ हो जाती है, उस समय पहले अलग न होनेपर भी वह बुद्धि संकल्पात्मक मन एवं घटादि पदार्थों में उपस्थित होती है अर्थात् बुद्धि से अनुगृहीत होनेपर ही कोई भी इन्द्रिय संकल्पजनित घट-पटादि को क्रमश: ग्रहण करती है। जगत् में जो भी नानाभाव हैं, वे सबके सब सात्विक, राजस और तामस – इन तीनोंभावों के ही अन्तर्गत हैं । जैसे अरे रथ की नेमि से जुडे़ होते हैं, उसी प्रकार सभी भाव सात्विक आदि गुणों के अनुगामी है।
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