महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 250 श्लोक 1-17

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पचाशदधिकद्विशततम (250) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पचाशदधिकद्विशततम श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

परमात्‍मा की प्राप्ति का साधन, संसार-नदी का वर्णन और ज्ञान से ब्रह्रा की प्राप्ति

शुकदेव जी ने पूछा – पिताजी ! इस जगत् में जिस धर्म से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है तथा जो सब धर्मों से श्रेष्‍ठ है, उसका आप मुझसे वर्णन कीजिये। व्‍यासजी ने कहा – बेटा ! मैं ऋषियों के बताये हुए उस प्राचीन धर्म का, जो सब धर्मों से श्रेष्‍ठ हैं, तुमसे यहाँ वर्णन करता हॅू, एकाग्रचित्त होकर सुनो। जैसे पिता अपने छोटे पुत्रों को काबू में रखता है, उसी प्रकार मनुष्‍य को चाहिये कि वह सब विषयो पर टूट पड़नेवाली अपनी प्रमथनशील इन्द्रियों का बुद्धि के द्वारा यत्‍नपूर्वक संयम करके उन्‍हें वश में रखे। मन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही सबसे बड़ी तपस्‍या है । यही सब धर्मों से श्रेष्‍ठतम परम धर्म बताया जाता है। मनसहित सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को बुद्धि के द्वारा स्थिर करके बहुत से चिन्‍तनीय विषयों का चिन्‍तन न करते हुए अपनी आत्‍मा में तृप्‍त सा होकर निश्चिन्‍त और निश्‍चल हो जाय। जिस समय ये इन्द्रियॉ अपने विषयों से हटकर अपने निवासस्‍थ में स्थित हो जायॅगी, उस समय तुम स्‍वयं ही उस सनातन परमात्‍मा का दर्शन कर लोगे। धूमरहित अग्नि के समान देदीप्‍यमान वह परमेश्‍वर ही सबका आत्‍मा और परम महान् है । महात्‍मा एवं ज्ञानी ब्राह्राण ही उसे देख पाते हैं। जैसे फल और फूलों से भरा हुआ अनेक शाखाओं से युक्‍त विशाल वृक्ष अपने ही विषय में यह नहीं जानता कि कहाँ मेरा फूल है और कहाँ मेरा फल है; उसी प्रकार जीवात्‍मा यह नहीं जानता कि मैं कहाँ से आया हॅू और कहाँ जाऊँगा । किंतु शरीर में जीव से पृथक् दूसरा ही अन्‍तरात्‍मा है, जो सबको सब प्रकार से निरन्‍तर देखता रहता है। पुरूष प्रज्‍वलित ज्ञानमय प्रदीप के द्वारा अपने में ही परमात्‍मा का दर्शन करता है; इसी प्रकार तुम भी आत्मा द्वारा परमात्‍मा साक्षात्‍कार करके सर्वज्ञ और स्‍वाभिमान से रहित हो जाओ। केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्प के समान सम्‍पूर्ण पापों से मुक्‍त हो उत्तम बुद्धि पाकर तुम यहाँ पाप और चिन्‍ता से रहित हो जाओ। यह संसार एक भयंकर नदी है, जो सम्‍पूर्ण लोक मे प्रवाहित हो रही है । इसके स्‍त्रोत सम्‍पूर्ण दिशाओं की ओर बहते है । पॉच ज्ञानेन्द्रियॉ इसके भीतर पॉच ग्रहों के समान है । मन के संकल्‍प ही इसके किनारे हैं । लोभ और मोहरूपी घास और सेवार से यह ढकी हुई है । काम और क्रोध इसमे सर्प के समान निवास करते हैं । सत्‍य इसका घाट है । मिथ्‍या इसकी हलचल है । क्रोध ही कीचड़ है । यह नदी दूसरी नदियों से श्रेष्‍ठ है । यह अव्‍यक्‍त प्रकृतिरूपी पर्वत से प्रकट हुई है । इसके जल का वेग बड़ा प्रखर है । अजितात्‍मा पुरूषों के लिये इसे पार करना अत्‍यन्‍त कठिन है। इसमें कामरूप ग्राह सब ओर भरे है । यह नदी संसार सागर में मिली है । वासनारूपी गहरे गड्ढों के कारण इसे पार करना अत्‍यन्‍त कठिन है । तात ! यह अपने कर्मो से ही उत्‍पन्‍न हुई। है। जिह्रा भवँर है तथा इस नदी को लॉघना दुष्‍कर है। तुम अपनी विशुद्ध बुद्धि के द्वारा इस नदी को पार कर जाओ। धैर्यशाल, मनीषी और तत्‍वज्ञानी लोग जिस नदी को पार करते हैं, उसे तुम भी तैर जाओ । सब प्रकार के बन्‍धनों से मुक्‍त, संयतचित्त, आत्‍मज्ञ और पवित्र हो जाओ । उत्तम बुद्धि (ज्ञान) का आश्रय ले तुम सब प्रकार के सांसारिक बन्‍धनों से छूट जाओेगे और निष्‍पाप एवं प्रसन्‍नचित्त हो ब्रह्राभाव को प्राप्‍त हो जाओगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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