महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 251 श्लोक 1-15
एकपचाशदधिकद्विशततम (251) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
ब्रह्रावेता ब्राह्राण के लक्षण और परब्रह्रा की प्राप्ति का उपाय
व्यासजी कहते हैं– बेटा ! साधक को चाहिये कि गन्ध और रस आदि विषयों का उपभोग न करे, विषय सेवनजनित सुख की ओर न जाय, स्वर्ण आदि के बने हुए सुन्दर-सुन्दर आभूषणों को भी धारण करे तथा मान, बड़ाई और यश की इच्छा न करे, यही ज्ञानवान् ब्राह्राण का आचार है। जो सम्पूर्ण वेदों का अध्ययनकर ले, गुरू की सेवा में रहे, ब्रह्राचर्य व्रतका पालन करे तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद का पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त कर ले, वही मुख्य ब्राह्राण है। जो समस्त प्राणियों को अपने कुटुम्ब की भाँति समझकर उन पर दया करता है । जानने योग्य तत्व का ज्ञाता तथा सब वेदों का तत्वज्ञ है और कामना से रहित है । वह कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता अर्थात् जन्म मृत्यु के बन्धन से सदा के लिये मुक्त हो जाता है । इन लक्षणोंसे सम्पन्न पुरूष ब्राह्राण नहीं है ऐसी बात नहीं, किंतु वही सच्चा ब्राह्राण है। नाना प्रकारकी इष्टियों और बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञों का अनुष्ठान करनेमात्र से बिना विधानके अर्थात् बिना आत्मज्ञान के किसी को किसी तरह भी ब्राह्राणत्व नहीं प्राप्त हो सकता। जिस समय वह दूसरे प्राणियों से नहीं डरता और दूसरे प्राणी भी उससे भयभीत नहीं होते तथा जब वह इच्छा और द्वेषका सर्वथा परित्याग कर देता है, उसी समय उसे ब्रह्राभाव की प्राप्ति होती है। जब वह मन, वाणी और क्रियाद्वारा किसी भी प्राणी की बुराई करने का विचार अपने मन में नहीं करता,तब वह ब्रह्राभाव को प्राप्त हो जाता है। जगत् में कामना ही एकमात्र बन्धन है, यहाँ दूसरा कोई बन्धन नहीं है । जो कामना के बन्धन से छूट जाता है, वह ब्रह्राभाव प्राप्त करने में समर्थ हो जाताहै। कामना से मुक्त हुआ रजोगुणरहित धीर पुरूष धूमिलरंग के बादल से निकले हुए चन्द्रमाकी भाँति निर्मल होकर धैर्यपूर्वक काल की प्रतीक्षा करता रहता है। जैसे नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण और अविचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, उसी प्रकार सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरूष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही प्रविष्ट हो जाते हैं, वही पुरूष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहनेवाला नहीं। भोग ही उस स्थितप्रज्ञ पुरूष की कामना करते हैं,परंतु वह भोगों की कामना नहीं रखता। जो कामभोग चाहनेवाला देहाभिमानी है, वह कामनाओं के फलस्वरूप स्वर्गलोक में चला जाता है। वेद का सार है सत्य वचन, सत्य का सार है इन्द्रियों का संयम, संयम का सार है दान और दान का सार है तपस्या। तपस्या का सार है त्याग, त्याग का सार है सुख, सुख का सार है स्वर्ग और स्वर्ग का सार है शान्ति। मनुष्य को संतोषपूर्वक रहकर शान्ति के उत्तम उपाय सत्वगुण को अपनाने की इच्छा करनी चाहिये । सत्वगुण मन की तृष्णा, शोक और संकल्प को उसी प्रकार जलाकर नष्ट करनेवालाहै, जैसे गरम जल चावलकोगला देता है। शोकशून्य, ममतारहित,शान्त,प्रसन्नचित्त, मात्सर्यहीनऔर संतोषी – इन छ: लक्षणों से युक्त मनुष्य पूर्णत: ज्ञान से तृप्त हो मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जो देहाभिमान से मुक्तहोकर सत्वप्रधान सत्य, दम, दान, तप, त्याग और शम – इन छ: गुणों तथा श्रवण, मनन, निदिध्यासनरूप त्रिविध साधनोंसे प्राप्त होनेवाले आत्मा को इस शरीर के रहते हुए ही जान लेते हैं, वे परम शान्तिरूप गुण को प्राप्त होते हैं।
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