महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-19
अष्टम (8) अध्याय: स्त्रीपर्व (जलप्रदानिक पर्व )
व्यासजी का संहार को अवश्यम्भावी बताकर धृतराष्ट्र को समझाना
वैशम्पायनजी कहते हैं–राजन् ! विदुरजी के ये वचन सुनकर कुरुश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र पुत्र शोक से संतप्त एवं मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े । उन्हें इस प्रकार अचेत होकर भूमि पर गिरा देख सभी भाई-बन्धु, व्यासजी, विदुर, संजय,सुहृद्रण तथा जेा विश्वसनीय द्वारपाल थे, वे सभी शीतल जल के छींटे देकर ताड़ के पंखों से हवा करने और उनके शरीर पर हाथ फेरने लगे । उस बेहोशी की अवस्था में वे बड़े यत्न के साथ धृतराष्ट्र को होश में लाने के लिये देर तक आवश्यक उपचार करते रहे । तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् राजा धृतराष्ट्र को चेत हुआ और वे पुत्रों की चिन्ता में डूबकर बड़ी देरतकविलाप करते रहे । वे बोले–‘इस मनुष्य जन्म को धिक्कार है ! इसमेंभीविवाह आदि करके परिवार बढ़ाना तो और भी बुरा है; क्योंकि उसी के कारण बारंबार नाना प्रकार के दु:ख प्रात्प होते हैं । ‘प्रभो ! पुत्र, धन, कुटुम्ब और सम्बन्धियों का नाश होने पर तो विष पीने और आग में जलने के समान बड़ा भारी दु:ख भोगना पड़ता है । ‘उस दु:ख से सारा शरीर जलने लगता है, बुद्धि नष्ट हो जाती है और उस असह्य शोक से पीड़ित हुआ पुरुष जीने की अपेक्षा मर जाना अधिक अच्छा समझता है । ‘आज भाग्य के फेर से वही यह स्वजनों के विनाश का महान् दु:ख मुझे प्राप्त हुआ है । अब प्राण त्याग देने के सिवा और किसी उपाय द्वारा मैं इस दु:ख से पार नहीं पा सकता । ‘द्विजश्रेष्ठ ! इसलिये आज ही मैं अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगा । अपने ब्रह्मवेत्ता पिता महात्मा व्यासजी से ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र अत्यन्त शोक में डूब गये और सुध-बुध खो बैठै ! राजन् ! पुत्रों का ही चिन्तन करते हुए वे बूढे़ नरेश वहाँ मौन होकर बैठे रह गये । उनकी बात सुनकरशक्तिशाली महात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास पुत्र शोक से संतप्त हुए अपने बेटे से इस प्रकार बोले– व्यासजी ने कहा–महाबाहु धृतराष्ट्र ! मैं तुमसे जो कुछ कहता हू़ँ,उसे ध्यान देकर सुनो । प्रभो ! तुम वेदशास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न, मेधावी तथा धर्म और अर्थ के साधन में कुशल हो । शत्रुसंतापी नरेश ! जानने योग्य जो कोई भी तत्त्व है, वह तुमसे अज्ञात नहीं है । तुम मानव-जीवन की अनित्यता को अच्छी तरह जानते हो, इसमें संशय नहीं है । भरतनन्दन ! जब जीव-जगत् अनित्य है, सनातन परम पद नित्य है और इस जीवन का अन्त मृत्यु में ही है, तब तुम इसके लिये शोक क्यों करते हो ? राजेन्द्र ! तुम्हारे पुत्र को निमित्त बनाकर काल की प्रेरणा से इस वैर की उत्पत्ति तो तुम्हारे सामने ही हुई थी । नरेश्वर ! जब कौरवों का यह विनाश अवश्यम्भावी था, तब परम गति को प्राप्त हुए उन शूरवीरों के लिये तुम क्यों शोक कर रहे हो ? महाबाहु नरेश्वर ! महात्मा विदुर इस भावी परिणाम को जानते थे, इसलिये इन्होंने सारी शक्ति लगाकर संधि के लिये प्रयत्न किया था । मेरा तो ऐसा विश्वास है कि दीर्घ काल तक प्रयत्न करके भी कोई प्राणी दैव के विधान को रोक नहीं सकता ।
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