भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-27

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:३१, ९ अगस्त २०१५ का अवतरण ('<h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">10. आत्म-विद्या </h4> <poem style="text-align:cente...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

10. आत्म-विद्या

5. अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः।
असत्वरोऽर्थजिज्ञासुर् अनसूयुर् अमोघवाक्।।
अर्थः
साधक को निरभिमानी, निर्मत्सर, दक्ष, ममताशून्य, स्नेह में दृढ़, जल्दबाजी न करने वाला, तत्व-जिज्ञासु, असूयारहित और सत्यवादी होना चाहिए।
 
6. जायापत्य-गृह-क्षेत्र-स्वजन-द्रविणादिषु।
उदासीनः समं पश्यन् सर्वेष्वर्थमिवात्मनः।।
अर्थः
स्त्री-पुत्र, घर-बार, खेती-बारी, स्वजन-संपत्ति आदि से उदासीन ( यानी अनासक्त ) रहें। और आत्मौपम्य बुद्धि से सबके लिए सम दृष्टि रखें।
 
7. विलक्षणः स्थूलसूक्ष्माद देहादात्मेक्षिता स्वदृक्।
यथाग्निर् दारुणो दाह्याद दाहकोऽन्यः प्रकाशकः
अर्थः
जिस तरह जलने वाले काष्ठ आदि से उन्हें जलाने वाला और प्रकाश देनेवाला अग्नि भिन्न होता है, उसी तरह स्थूल और सूक्ष्म देहों से आत्मा पृथक् है। वह द्रष्टा और स्वयं-ज्ञान-प्रकाशरूप है।
 
8. योऽसौ गुणैर् विरचितो देहोऽयं पुरुषस्य हि।
संसारस् तन्निबंधोऽयं पुंसो विद्याच्चिदात्मनः।।
अर्थः

यह जो त्रिगुणों से बनी मनुष्य-देह है, उस देह से संबंध होने के कारण ही चैतन्यमय पुरुष के पीछे संसार लगा है, ऐसा जानें।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-