महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 257 श्लोक 1-17

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सप्‍तपञ्चाशदधिकद्विशततम (257) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

महादेवजीकी प्रार्थना से ब्रह्राजी के द्वारा अपनी रोषाग्नि का उपसंहार तथा मृत्‍यु की उत्‍पत्ति   महादेवजी ने कहा-प्रभो ! पितामह ! मेरा मनोरथ या प्रयोजन आपसे प्रजासर्ग की रक्षा के लिये प्रार्थना करना है । आप इस बात को जान लें । आप ही ने इन प्रजाओं की सृष्टि की है; अत: आप इन पर क्रोध न कीजिये। देव ! जगदीश्‍वर ! आज आप की क्रोधाग्नि से सारी प्रजाऍ दग्‍ध हो रही हैं । उन्‍हें उस अवस्‍था में देखकर मुझे दया आती है, आप उनपर क्रोध न करें। प्रजापति ब्रहाजी बोले–शिव ! मैं प्रजापर कुपित नहीं हॅू और न मेरी यही इच्‍छा है कि प्रजाओं का विनाश हो जाय । पृथ्‍वी का भार हल्‍का करने के लिये ही प्रजा के संहार की आवश्‍यकता प्रतीत हुई है। महादेव ! यह पृथ्‍वीदेवी भारी भार से पीडि़त हो सदा मुझे प्रजा के संहार के लिये प्रेरित करती रही है; क्‍योंकि यह जगत् के भार से समुद्र में डुबी जा रही है । जब बहुत विचार करनेपर भी मुझे इन बढ़ी हुई प्रजाओं के संहार का कोई उपाय न सूझा, तब मुझे क्रोध आ गया। महादेवजी ने कहा-देवेश्‍वर ! संहार के लिये आप क्रोध न करें । प्रजा पर प्रसन्‍न हों । कहीं ऐसा न हो कि समस्‍त चराचर प्राणियों का विनाश हो जाय। ये सारे जलाशय, सब के सब घास और लता-बेलें तथा चार प्रकार के प्राणिसमुदाय (स्‍वेदज, अण्‍डज, उद्रिज्‍ज, जरायुज) भस्‍मीभूत हो रहे हैं । सारे जगत् का प्रलय उपस्थित हो गया है । भगवन् ! प्रसन्‍न होइये । साधो ! मैं आपसे यही वर मॉगता हॅू। यदि इन प्रजाओं का नाश हो गया तो ये किसी तरह फिर यहॉ उपस्थित न हो सकेंगी । इसीलिये आप अपने ही प्रभाव से इस क्रोधाग्नि को निवृत्त कीजिये। पितामह ! आप सम्‍पूर्ण प्राणियों के हित के लिये संहार का कोई दूसरा ही उपाय सोचिये, जिससे ये सारे जीव-जन्‍तु एक साथ ही दग्‍ध न हो जायॅ। लोकेश्‍वरेश्‍वर ! आपने मुझे देवताओं के आधिपत्‍य पद पर नियुक्‍त किया है, अत: मैं आपसे प्रार्थना करता हॅू, यदि प्रजा की संतति का उच्‍छेद होगा तो समस्‍त प्रजाओं का सर्वथा अभाव ही हो जायगा; अत: आप इस विनाश को बंद कीजिये। जगन्‍नाथ ! महादेव ! यह समस्‍त चराचर जगत् आपसे ही उत्‍पन्‍न हुआ है; अत: मैं आपको प्रसन्‍न करके यह याचना करता हॅू कि ये सारी प्रजा पुनरावर्तनशील हो –मरकर पुन: जन्‍म धारण करे। नारदजी कहते हैं -राजन् ! महादेवजी की वह बात सुनकर भगवान् ब्रह्रा ने मन और वाणी का संयम किया तथा उस अग्निको पुन: अपनी अन्‍तरात्‍मा में ही लीन कर लिया। तब लोकपूजित भगवान् ब्रह्राने उस अग्नि का उपसंहार करके प्रजा के लिये जन्‍म और मृत्‍यु की व्‍यवस्‍था की। उस क्रोधाग्नि का उपसंहार करते समय महात्‍मा ब्रह्रा जी की सम्‍पूर्ण इन्द्रियों से एक मूर्तिमती नारी प्रकट हुई। उसके वस्‍त्र काले और लाल थे । ऑखों के निम्‍न और आभ्‍यन्‍तर प्रदेश भी काले रंग के ही थे। वह दिव्‍य कुण्‍डलों से कान्तिमती तथा अलौकिक आभूषणों से विभूषित थी। वह ब्रह्राजी के इन्द्रिय छिद्रों से निकलकर दक्षिण दिशा की ओर चल दी । उस समय उन दोनों जगदीश्‍वरों (ब्रह्रा और शिव) ने उस कन्‍या को देखा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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