भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-41
14 भक्ति-पावनत्व
9. वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचित् च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्ति-युक्तो भुवनं पुनाति।।
अर्थः
प्रेम से जिसकी वाणी गद्गद हो गयी है, चित्त प्रेमार्द्र हो गया है, प्रेम के अतिरेक से जो लगातार आँसू बहाता है, कभी हँसता है, तो कभी लाज छोड़कर जोर-जोर से गाता-नाचता है, ऐसा मेरा भक्त सारे जगत् को पवित्र करता है।
10. यथाग्निना हेम मलं जहाति
ध्मातं पुनः स्वं भजते च रूपम्।
आत्मा च कर्मानुशयं विधूय
मदुभक्ति-योगेन भजत्यथो माम्।।
अर्थः
जैसे आग में डालकर तपाया हुआ सोना अपना मैल त्यागकर पुनः अपना असली निखरा रूप प्राप्त कर लेता है, वैसे ही मेरे भक्त की आत्मा मेरे भक्तियोग से कर्म वासना ( यानी चित्त का मैल ) धुल जाने पर तत्काल मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाती है।
11. यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ
मत्पुण्यगाथा-श्रवणाभिधानैः।
तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं
चक्षुर् यथैवांजन-संप्रयुक्तम्।।
अर्थः
मेरी पुण्य-गाथाओं के श्रवण और कीर्तन से ज्यों-ज्यों आत्मा निर्मल होती जाती है, त्यों-त्यों अंजन डालने पर आँखों को जिस तरह गुप्त बातें दीखने लगती हैं, उस तरह मेरे भक्त को सूक्ष्म यानी इंद्रियों से अगोचर परमात्म-वस्तुएँ दिखाई पड़ने लगती हैं।
12. विषयान् ध्यायतश् चित्तं विषयेषु विषज्जते।
मामनुस्मरतश् चित्तं मय्येव प्रविलीयते।।
अर्थः
विषयों का ध्यान करने वाला चित्त विषयों मे आसक्त हो जाता है। इस तरह दिन रात मेरा चिन्तन करने वाला का चित्त मुझमें ही लीन हो जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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