भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-63

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26. सत्संगति

 
1. दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षण-भंगुरः।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुंठप्रिय दर्शनम्।।
अर्थः
मनुष्य देह क्षणभंगुर होने पर भी जीव के लिए उसका पाना दुर्लभ है। उसमें भी भगवान् पर प्रेम करने वाले और भगवान् के प्रेमास्पद भक्तों का दर्शन उससे भी दुर्लभ है, ऐसा मुझे लगता है।
 
2. भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान्।
छायेव कर्म-सचिवाः साधवो दीन-वत्सलाः।।
अर्थः
जो देवताओं को जिस तरह भजते हैं, देवता भी उन्हें उसी तरह भजते हैं। जैसे छाया मनुष्य के पीछे-पीछे जाती है, वैसे ही देवता भी कर्म का अनुसरण करते हैं। केवल साधु-संत निरपेक्ष भाव से दीनवत्सल होते हैं।
 
3. यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम्।
शीतं भयं तमोऽप्येति साधून् संसेवतस् तथा।।
अर्थः
अग्नि नारायण का आश्रय लेने वाले को ठंड, अंधकार या भय नहीं रहता, उसी प्रकार संतों की सेवा करने वाले को।
 
4. निमज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायनम्।
संतो ब्रह्म-विदः शांता नौर् दृढेवाप्सु मज्जताम्।।
अर्थः
जैसे पानी में डूबने वालों की दृढ़ नौका तार देती है, वैसे ही भयंकर भवसागर में गोते खाने वाले को ब्रह्मवेत्ता, शांत संत उत्तम आधार हैं।
 
5. अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहम्।
धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य संतोऽर्वाग् विभ्यतोऽरणम्।।
अर्थः
अन्न प्राणियों का जीवन है, दुःखियों का आधार मैं परमेश्वर हूँ, धर्म ही परलोक के लिए मनुष्य की पूँजी है और संसार से भयभीत लोगों के लिए संतजन ही परम आधार है।
 
6. प्रायेण भक्ति-योगेन सत्संगेन विनोद्धव।
नोपायो विद्यते सघ्रूयं प्रायणं हि सतामहम्।।
अर्थः
हे उद्धव! साधुओं की संगति होने पर जो भक्तियोग साधता है, प्रायः उसके सिवा मेरी प्राप्ति का दूसरा अच्छा उपाय नहीं, क्योंकि मैं ही संतों की अंतिम गति हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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