महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 236 श्लोक 26-35

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षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षटत्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 26-35 का हिन्दी अनुवाद

पंचभूत और अहंकार इन छ: तत्‍वों का आत्‍मा है बुद्धि । उसको जीत लेनेपर सम्‍पूर्ण ऐश्‍वर्यों की प्राप्ति हो जाती है तथा उस योगी को निर्दोष प्रतिभा (विशुद्ध तत्‍वज्ञान) पूर्ण रूप से प्राप्‍त हो जाती है । उपर्युक्‍त सप्‍त पदार्थों का कार्यभूत व्‍यक्‍त जगत् अव्‍यक्‍त परमात्‍मा में ही विलीन हो जाता है, क्‍योंकि उन्‍हीं परमात्‍मा से यह जगत् उत्‍पन्‍न होता है और व्‍यक्‍त नाम धारण करता है । वत्‍स ! तुम सांख्‍यदर्शन में वर्णित अव्‍यक्‍तविद्या का विस्‍तारपूर्वक मुझसे श्रवण करो । सर्वप्रथम सांख्‍यशास्‍त्र में कथित व्‍यक्‍तविद्या को मुझसे समझों । सांख्‍य और पातजलयोग इन दोनों दशनों में समानभाव से पचीस तत्‍वों का प्रतिपादन किया गया है[१]।इस विषय में जो विशेष बात है, वह मुझसे सुनो । जन्‍म, वृद्धि, जरा और मरण-इन चार लक्षणों से युक्‍त जो तत्‍व है, उसी को व्‍यक्‍त कहते हैं । जो तत्‍व इसके विपरीत हैं अर्थात् जिसमें जन्‍म आदि चारों विकार नहीं हैं, उसे अव्‍यक्‍त कहा गया है । वेदों और सिद्धान्‍तप्रतिपादक शास्‍त्रों में उस अव्‍यक्‍त के दो भेद बताये गये हैं-जीवात्‍मा और परमात्‍मा । अव्‍यक्‍त होते हुए भी जीवात्‍मा व्‍यक्‍त के सम्‍पर्क से जन्‍म, वृद्धि, जरा और मृत्‍यु – इन चार लक्षणों से युक्‍त तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-इन चार पुरूषार्थों से सम्‍बन्धित कहा जाता है । दूसरा अव्‍यक्‍त परमात्‍मा ज्ञानस्‍वरूप है । व्‍यक्‍त (जडवर्ग) की उत्‍पत्ति उसी अव्‍यक्‍त (परमात्‍मा) से होती है । व्‍यक्‍त को सत्‍व (जडवर्ग-क्षेत्र) तथा अव्‍यक्‍त जीवात्‍मा को क्षेत्रज्ञ कहा जाता है । इस प्रकार इन दोनों ही का वर्णन किया गया है । वेदों में भी पूर्वोक्‍त दो आत्‍मा बताये गये हैं । विषयों में आसक्‍त हुआ जीवात्‍मा जब आसक्तिरहित विषयों से निवृत्त हो जाता है, तब वह मुक्‍त कहलाता है । सांख्‍यवादियों के मत में यही मोक्ष का लक्षण है। जिसने ममता और अहंकार का त्‍याग कर दिया है, जो शीत, उष्‍ण आदि द्वन्‍द्वों को समानभाव से सहता है, जिसके संशय दूर हो गये हैं, जो कभी क्रोध और द्वेष नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, किसी की गाली सुनकर और मार खाकर भी उसका अहित नहीं सोचता, सब पर मित्रभाव ही रखता है, जो मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को कष्‍ट नहीं पहॅुचाता और समस्‍त प्राणियों पर समानभाव रखता हैं, वही योगी ब्रह्राभाव को प्राप्‍त होता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सांख्‍य–कारिका में बतलाया है-मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृतिविकृतय: सप्‍त । षोडशकस्‍तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृति: पुरूष: ।मूल प्रकृति- अव्‍याकृत माया, महत्तत्‍व आदि प्रकृति के सात विकार- महत्तत्‍व, अहंकार और पंचतन्‍मात्राऍ (शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍ध), सोलह विकार-पाँच ज्ञानेन्द्रियॉ (श्रोत्र, त्‍वचा, नेत्र, रसना और घ्राण), पाँच कमेन्द्रियॉ (वाक्, हाथ, पैर, गुदा और शिश्‍न) तथा मन और पंचमहाभूत (आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्‍वी) एवं पुरूष, जो न प्रकृति हैं और न प्रकृति का विकार ही- इस प्रकार सांख्‍य के अनुसारये पचीस तत्‍व हैं ।पातजलयोगदर्शन में इनका इस प्रकार उल्‍लेख मिलता है –विशेषाविशेषलिंगमात्रालिंगानि गुणपर्वाणि ।‘विशेष-पंचमहाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कमेन्द्रिय और मन, अविशेष- पंचतन्‍मात्रा और अहंकार, लिगमात्र-महत्तत्‍व, अलिंग-मूलप्रकृति; इस प्रकार ये चौबीस तत्‍व एवं पचीसवॉ द्रष्‍टा (पुरूष) है ।

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