श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-17

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०९:५८, ९ अगस्त २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः (6)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
विराट्स्वरुप की विभूतियों का वर्णन

ब्रम्हाजी कहते हैं—उन्हीं विराट् पुरुष के मुख से वाणी और उसके अधिष्ठातृ देवता अग्नि उत्पन्न हुए है। सातों छन्द उनकी सात धातुओं से निकले हैं। मनुष्यों, पितरों और देवताओं के भोजन करने योग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकार के रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृ वरुण विराट् पुरुष की चिह्वा से उत्पन्न हुए हैं । उनके नासाछिद्रों से प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान—ये पाँचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रिय से अश्विकुमार, समस्त ओषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं । उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और तेज की तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्य की जन्मभूमि हैं। समस्त दिशाएँ और पवित्र करने वाले तीर्थ कानों से तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से निकले हैं। उनका शरीर संसार की सभी वस्तुओं का सार भाग तथा सौन्दर्य का खजाना है । सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी त्वचा से निकले हैं; उनके रोम सभी उद्धिज्ज पदार्थों का जन्मस्थान हैं, अथवा केवल उन्हीं के, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं । उनके केश, दाढ़ी-मूँछ और नखों से मेघ, बिजली, शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओं से प्रायः संसार की रक्षा करने वाले लोकपाल प्रकट हुए हैं । उनका चलना-फिरना भूः, भुवः, स्वः—तीनों लोकों का आश्रय है। उनके चरणकमल प्राप्त की रक्षा करते हैं और भयों को भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओं की पूर्ति उन्हीं से होती है । विराट् पुरुष का लिंग जल,वीर्य, सृष्टि, मेघ और प्रजापति का आधार है तथा उनकी जननेद्रिय मैथुनजनित आनन्द का उद्गम है । नारदजी विराट् पुरुष की पायु-इन्द्रिय यम, मित्र और मल त्याग का तथा गुदा द्वार हिंसा, निर्ऋति, मृत्यु और नरक का उत्पत्ति स्थान है । उनकी पीठ से पराजय, अधर्म और अज्ञान, नाड़ियों से नद-नदी और हड्डियों से पर्वतों का निर्माण हुआ है । उनके उदार में मूल प्रकृति, रस नाम की धातु तथा समुद्र, समस्त प्राणी और उनकी मृत्यु समायी हुई है। उनका ह्रदय ही मन की जन्मभूमि है । नारद! हम, तुम, धर्म, सनकादि, शंकर, विज्ञान और अन्तःकरण—सब-के-सब उनके चित्त के आश्रित हैं । (कहाँ तक गिनायें—) मैं, तुम, तुम्हारे बड़े भाई सनकादि, शंकर, देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, मृग, रेंगने वाले जन्तु, गन्धर्व, अप्सराएँ, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और नाना प्रकार के जीव—जो आकाश, जल या स्थल में रहते हैं—ग्रह-नक्षत्र, केतु (पुच्छल तारे) तारे, बिजली और बादल—ये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं। यह सम्पूर्ण विश्व—जो कुछ कभी था, है या होगा—सबको वह घेरे हुए है और उसके अन्दर यह विश्व उसके केवल दस अंगुल एक परिमाण में ही स्थित है । जैसे सूर्य अपने मण्डल को प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुराण पुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रह को प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर—सर्वत्र एक रस प्रकाशित हो रहा है । मुनिवर! जो कुछ मनुष्य की क्रिया और संकल्प से बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभय पद (मोक्ष)-का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमा का पार नहीं पा सकता ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-