श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 18-32

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:०२, ९ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः (5) == <div style="text-align:center; direction: ltr; mar...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः (5)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद
विराट्स्वरुप की विभूतियों का वर्णन

सम्पूर्ण लोक भगवान् के एक पाद मात्र (अंश मात्र) हैं, तथा उनके अंश मात्र लोकों में समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के ऊपर महर्लोक है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्य लोकों में क्रमशः अमृत, क्षेम एवं अभय का नित्य निवास है । जन, तप और सत्य—इन तीनों लोकों में ब्रम्हचारी, वानप्रस्थ एवं सन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रम्हचर्य से रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के भीतर ही निवास करते हैं । शास्त्रों में दो मार्ग बतलाये गये हैं—एक अविद्या रूप कर्म मार्ग, जो सकाम पुरुषों के लिये है और दूसरा उपासना रूप विद्या का मार्ग, जो निष्काम उपासकों के लिये है। मनुष्य दोनों में से किसी एक का आश्रय लेकर भोग प्राप्त कराने वाले दक्षिण मार्ग से अथवा मोक्ष प्राप्त कराने वाले उत्तर मार्ग से यात्रा करता है; किन्तु पुरुषोत्तम-भगवान् दोनों के आधारभूत हैं । जैसे सूर्य अपनी किरणों से सबको प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मा से इस अण्ड की और पंचभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट् की उत्पत्ति हुई है—वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओं के अन्दर और उनके रूप में रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं । जिस समय इस विराट् पुरुष के नाभि कमल से मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुष के अंगों के अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञ की सामग्री नहीं मिली । तब मैंने उनके अंगों में ही यज्ञ के पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञ के योग्य उत्तम काल की कल्पना की । ऋषिश्रेष्ठ! यज्ञ के लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल आदि ओषधियाँ,, घृत आदि स्नेह पदार्थ, छः रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजुः, साम, चातुर्होत्र, यज्ञों के नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओं के नाम, पद्धति ग्रन्थ, संकल्प, तन्त्र (अनुष्ठान की रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित और समर्पण—यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुष के अंगों से ही इकट्ठी की । इस प्रकार विराट् पुरुष के अंगों से ही सारी सामग्री का संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियों से उन यज्ञस्वरुप परमात्मा का यज्ञ के यजन किया । तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियों ने अपने चित्त को पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामी रूप से स्थित उस पुरुष की आराधना की । इसके पश्चात् समय-समय पर मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्यों ने यज्ञों के द्वारा भगवान् की आराधना की । नारद! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान् नारायण में स्थित है जो स्वयं तो प्राकृत गुणों से रहित हैं, परन्तु सृष्टि के प्रारम्भ में माया के द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं । उन्हीं की प्रेरणा से मैं इस संसार की रचना करता हूँ। उन्हीं के अधीन होकर रूद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णु के रूप से इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्व, रज और तम की तीन शक्तियाँ-स्वीकार कर रखी हैं । बेटा! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारण के रूप में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो भगवान् से भिन्न हो ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-