श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 33-45

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द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः (5)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 33-45 का हिन्दी अनुवाद
विराट्स्वरुप की विभूतियों का वर्णन

प्यारे नारद! मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कण्ठित ह्रदय से भगवान् के स्मरण में मग्न रहता हूँ, इसी से मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दीखती, मेरा मन कभी असत्य संकल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादा का उल्लंघन करके कुमार्ग में नहीं जातीं । मैं वेदमूर्ति हूँ, मेरा जीवन तपस्यामय है, बड़े-बड़े प्रजापति मेरी वन्दना करते हैं और मैं उनका स्वामी हूँ। पहले मैंने बड़ी निष्ठा से योग का सर्वांग अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने मूल कारण परमात्मा के स्वरुप को नहीं जान सका । (क्योंकि वे तो एकमात्र भक्ति से ही प्राप्त होते हैं।) मैं तो परम मंगलमय एवं शरण आये हुए भक्तों को जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले परम कल्याण स्वरुप भगवान् के चरणों को ही नमस्कार करता हूँ। उनकी माया की शक्ति अपार है; जैसे आकाश अपने अन्त को नहीं जानता, वैसे ही वे भी अपनी महिमा का विस्तार नहीं जानते। ऐसी स्थिति में दूसरे तो उसका पार पा ही कैसे सकते हैं ? मैं, मेरे पुत्र तुम लोग और शंकरजी भी उनके सत्यस्वरुप को नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं। हम सब इस प्रकार मोहित हो रहे हैं कि उनकी माया के द्वारा रचे हुए जगत् को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही अटकल लगाते हैं । हम लोग केवल जिनके अवतार की लीलाओं का गान ही करते रहते हैं, उनके तत्व को नहीं जानते—उन भगवान् के श्रीचरणों में मैं नमस्कार करता हूँ । वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्प में वे स्वयं अपने-आप में अपने-आपकी ही सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं। वे माया के लेश से रहित, केवल ज्ञान स्वरुप हैं और अन्तरात्मा के रूप में एकरस स्थित हैं। वे तीनों काल में सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि न अन्त। वे तीनों गुणों से रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं । नारद! महात्मा लोग जिस समय अपने अन्तःकरण, इन्द्रिय और शरीर को शान्त कर लेते हैं, उस समय उनका साक्षात्कार करते हैं। परन्तु जब असत्पुरुषों के द्वारा कुतर्कों का जाल बिछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते । परमात्मा का पहला अवतार विराट् पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पंचभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियाँ, ब्राम्हण-शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जंगम जीव—सब-के-सब उन अनन्त भगवान् के ही रूप हैं । मैं, शंकर, अन्य भक्तजन, स्वर्ग लोक के रक्षक, पक्षियों के राजा, मनुष्य लोक के राजा, नीचे के लोकों के राजा; गन्धर्व, विद्याधर और चारणों के अधिनायक; यक्ष, राक्षस, साँप और नागों के स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेम-पिशाच, भूत-कुष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षियों के स्वामी; एवं संसार में और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल या क्षमा से युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव तथा वर्णवाली, रूपवान् या अरूप हैं—वे सब-के-सब परमतत्वमय भगवत्स्वरूप ही हैं । नारद! इनके सिवा परम पुरुष परमात्मा के परम पवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रों में वर्णित हैं। उनका मैं क्रमशः वर्णन करता हूँ। उनके चरित्र सुनने में बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रिय के दोषों को दूर को दूर करने वाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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