महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 30-46
प्रथम (1) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
व्याधने कहा—गौतमी ! इस एक सर्पसे बहुततेरे मनुष्योंके जीवनकी रक्षा करना चाहिये । (क्योंकि यदि यह जीवित रहा तो बहुतोंको काटेगा ।) अनेकोंकी जान लेकर एककी रक्षा करना कदापि उचित नहीं है। धर्मज्ञ पुरूष अपराधीको त्याग देते हैं; इसलिये तुम भी इस पापी सर्पको मार डालो। गौतमी बोली — व्याध ! इस सर्पके मारे जानेपर मेरा पुत्र पुन: जीवन प्राप्त कर लेगा, ऐसी बात नहीं है । इसका वध करनेसे दूसरा कोई लाभ भी मुझे नहीं दिखायी देता है । इसलिये इस सर्पको तुम जीवित छोड़ दो। व्याधने कहा—देवि ! वृत्रासुरका वध करके देवराज इन्द्र श्रेष्ठ पदके भागी हुए और त्रिशूलधारी रूद्रदेवने दक्षके यज्ञका विध्वंस करके उसमें अपने लिये भाग प्राप्त किया । तुम भी देवताओं द्वारा किये गये इस बर्तावका ही पालन करो। इस सर्पको शीघ्र ही मार डालो। इस कार्यमें तुम्हें शंका नहीं करनी चाहिये। भीष्मजी कहते हैं—राजन् ! व्याधके बार-बार कहने और उकसानेपर भी महाभागा गौतमीने सर्पको मारनेका विचार नहीं किया। उस समय बन्धन से पीड़ित होकर धीरे-धीरे साँस लेता हुआ वह साँप बड़ी कठिनाईसे अपनेको सँभालकर मन्दस्वरसे मनुष्यकी वाणीमें बोला। सर्पने कहा—ओ आदान अर्जुनक ! इसमें मेरा क्या दोष है ? मैं तो पराधीन हूँ । मृत्युने मुझे विवश करके इस कार्यके लिये प्रेरित किया था। उसके कहनेसे ही मैंने इस बालकको डँसा है, क्रोध से और कामनासे नहीं । व्याध ! यदि इसमें कुछ अपराध है तो वह मेरा नहीं, मृत्युका है । व्याधने कहा—ओ सर्प ! यद्यपि तूने दूसरेके अधीन होकर यह पाप किया है तथापि तू भी तो इसमें कारण है ही; इसलिये तू भी अपराधी है। सर्प ! जैसे मिट्टी का बर्तन बनाते समय दण्ड और चाक आदिको भी उसमें कारण माना जाता है, उसी प्रकार तू भी इस बालकके वधमें कारण है। भुजंगम ! जो भी अपराधी हो, वह मेरे लिये वध्य है; पन्नग ! तू भी अपराधी है ही; क्योंकि तू स्वयं अपने आपको इसके वधमें कारण बताता है। सर्पने कहा—व्याध ! जैसे मिट्टी का बर्तन बनानेमें ये दण्ड–चक्र आदि सभी कारण पराधीन होते हैं, उसी प्रकार मैं भी मृत्युके अधीन हूँ । इसलिये तुमने जो मुझपर दोष लगाया है, वह ठीक नहीं है। अथवा यदि तुम्हारा यह मत हो कि ये दण्ड-चक्र आदि भी एक-दूसरे के प्रयोजक होते हैं; इसलिये कारण हैं ही । किंतु ऐसा माननेसे एक-दूसरेको प्रेरणा देनेवाला होनेके कारण कार्य-कारणभावके निर्णयमें संदेह हो जाता है। ऐसी दशामें न तो मेरा कोई दोष है और न मैं वध्य अथवा अपराधी ही हूँ । यदि तुम किसीका अपराध समझते हो तो वह सारे कारणोंके समूहपर ही लागू होता है। व्याधने कहा—सर्प ! यदि मान भी लें कि तू अपराधका न तो कारण है और न कर्ता ही है तो भी इस बालककी मृत्यु तो तेरे ही कारण हुई है, इसलिये मैं तुझे मारने योग्य समझता हूँ। सर्प ! तेरे मतके अनुसार यदि दुष्टतापूर्ण कार्य करके भी कर्ता उस दोषसे लिप्त नहीं होता है, तब तो चोर या हत्यारे आदि जो अपने अपराधोंके कारण राजाओं के यहाँ वध्य होते हैं, उन्हें भी वास्तवमें अपराधी या दोषका भागी नहीं होना चाहिये। (फिर तो पाप और उसका दण्ड भी व्यर्थ ही होगा) अत: तू क्यों बहुत बकवाद कर रहा है ॥ सर्पने कहा—व्याध ! प्रयोजक (प्रेरक) कर्ता रहे या न रहे, प्रयोज्य कर्ताके बिना क्रिया नहीं होती; इसलिये यहाँ यद्यपि हमलोग (मैं और मृत्यु) समानरूप से हेतु; हैं तो भी प्रयोजक होनेके कारण मृत्यु पर ही विशेषरूप से यह अपराध लगाया जा सकता है । यदि तुम मुझे इस बालककी मृत्युका वस्तुत: कारण मानते हो तो यह तुम्हारी भूल है । वास्तम में विचार करने पर प्रेरणा करनेके कारण दूसरा ही (मृत्यु ही) अपराधी सिद्व होगा; क्योकि वही प्राणियों के विनाश में अपराधी है।
« पीछे | [[महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 47
-65|आगे »]] |