भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-83
भागवत धर्म मिमांसा
2. भक्त लक्षण
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(3.3) मैत्री-करुणा-मुदितोपेक्षाणां सुख-दुःख-पुण्यापुण्य-
विषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।[१]
यह है तीसरे दर्जे का भक्त! अर्चायाम्- मूर्ति में, चिह्न में या मंत्र में। हरये पूजनं यः श्रद्धया ईहते- श्रद्धा रखकर भगवान् की पूजा करना चाहता है। तद्भक्तेषु च अन्येषु च- भगवान् के भक्तों और अन्य लोगों की वैसी श्रद्धा से पूजा करना नहीं चाहता। स प्राकृतः भक्तः स्मृतः- वह प्राकृत, सर्वसाधारण, तीसरे दर्जे का भक्त कहा गया है। सिख लोग ‘ग्रंथ’ (गुरुग्रंथ साहिब) पर श्रद्धा रखते और मानते हैं कि उसमें से प्रकाश मिलता है। कोई मंत्र पर श्रद्धा रखते हैं। किसी की ऊँकार या स्वस्तिष्क के चिह्न पर श्रद्धा होती है। इस तरह अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार ये भक्ति करते हैं, लेकिन भगवान् के भक्तों की पूजा नहीं करते। इसका मतलब यह नहीं कि उनके लिए आदर नहीं रखते। आदर रखते हैं, पर मानते हैं कि जो कुछ है, वह सब मूर्ति में ही है, बाकी सब शून्य है। क्योंकि भगवान् के भक्त कैसे पहचाने जाएंगे? उनके मन में क्या-क्या है, यह कैसे पता चलेगा? इसलिए मूर्ति, चिह्न, मंत्र या ग्रंथ पर उनकी श्रद्धा होती है। इस प्रकार के भक्तों को ‘प्राकृत भक्त’ कहा गया है। यानी तीसरे दर्जे का भक्त! इसमें सब उत्तीर्ण हो सकते हैं। बात इतनी ही है कि श्रद्धा होनी चाहिए। इसके बाद भक्तों का चौथा दर्जा भगवान् के पास नहीं है। इसीलिए भगवान् ने यह आखिरी दर्जा दिया और कहा है कि तुम मूर्ति की पूजा करो तो भी चल जाएगा।
लेकिन तुकाराम महाराज ने उलटा ही कहा है :
<poem style="text-align:center">'देव सारावे परते। संत पूजावे आरते।।
‘परते’ यानी उस पार, ‘आरते’ यानी इस पार। भगवान् की मूर्ति को दूर करो और प्रथम संतों की पूजा करो। मतलब यह कि आपके घर में कोई संत आया और आप भगवान् की मूर्ति की पूजा में लगे हों, तो उसे छोड़कर पहले संत की पूजा करें। मूर्ति-पूजा अलग रखकर संत की पूजा करने लगेंगे, तो जरा ऊपर उठेंगे- यह तुकाराम के इस वचन में खूबी है। वे कहते हैं कि जरा आधी डिग्री तो ऊपर उठो। सवाल आता है कि संत कैसे पहचाना जाए? मूर्ति के बारे में तो यह सवाल पैदा ही नहीं होता। वहाँ चित्त डाँवाडोल नहीं होता, शत प्रतिशत श्रद्धा होती है। किंतु कोई संत आता है, तो तुरंत सवाल पैदा होता है कि वह संत है या नहीं? संतों की परीक्षा करें, तो आपको वह अधिकार नहीं। यानी बिना परीक्षा किए ही उनका आदर करना होगा। कहने का अर्थ इतना ही है कि लोग जिसे ‘सज्जन’ मानते हैं, उन्हें हम नम्रतापूर्वक सज्जन माने। पत्थर की मूर्ति जैसी हो, वैसी स्वीकार करके श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं। इसी तरह हमें भी श्रद्धापूर्वक बिना परीक्षा किए संतों की पूजा करनी चाहिए। फिर इसके लिए मूर्ति की पूजा अलग रखनी पड़े, तो भी हर्ज नहीं। इससे भगवान् नाराज नहीं होंगे। भक्तों का इस तरह का वर्णन गीता में नहीं मिलता। सब भूतों में भगवान् को देखो, यह बात गीता में है, लेकिन भक्तों के ये तीन दर्जे वहाँ नहीं मिलते। भक्तों के ये जो दर्जे बताये हैं, उनका क्या अर्थ है? क्या उनमें मान-सम्मान की बात है? ऐसा नहीं। हमारे लिए सहूलियत मात्र कर दी गयी, इतनी ही बात है। एक के बाद एक सीढ़ी बतायी है, ताकि हम आगे बढ़ सकें। इससे चित्त एकाग्र करने में कठिनाई नहीं होगी। जिस पर श्रद्धा हो, उस पर चित्त एकाग्र होता है, इसलिए पहले यह बात बतायी। फिर चार प्रकार की भावनाएँ बतायीं। यह उससे आगे का कदम हुआ। फिर उत्तम भक्त तक पहुँचने के लिए रास्ता बताया। मतलब यही कि यदि आप इस रास्ते से जाते हैं, तो अपने ध्येय तक पहुँच सकते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.2.47
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