जाति

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लेख सूचना
जाति
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 455
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक राजाराम शास्त्री तथा सत्यप्रकाश मित्तल

जाति भारतीय समाज जातीय सामाजिक इकाइयों से गठित और विभक्त है। श्रमविभाजनगत आनुवंशिक समूह भारतीय ग्राम की कृषिकेंद्रित व्यवस्था की विशेषता रही है। यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में श्रमविभाजन संबंधी विशेषीकरण जीवन के सभी अंगों में अनुस्यूत है और आर्थिक कार्यों का ताना बाना इन्हीं आनुवंशिक समूहों से बनता है। यह जातीय समूह एक ओर तो अपने आंतरिक संगठन से संचालित तथा नियमित है और दूसरी ओर उत्पादन सेवाओं के आदान प्रदान और वस्तुओं के विनिमय द्वारा परस्पर संबद्ध हैं। समान पंमपरागत पेशा या पेशे, समान धार्मिक विश्वास, प्रतीक सामाजिक और धार्मिक प्रथाएँ एवं व्यवहार, खानपान के नियम, जातीय अनुशासन और सजातीय विवाह इन जातीय समूहों की आंतरिक एकता को स्थिर तथा दृढ़ करते हैं। इसके अतिरिक्त पूरे समाज की दृष्टि में प्रत्येक जाति का सोपानवत्‌ सामाजिक संगठन में एक विशिष्ट स्थान तथा मर्यादा है जो इस सर्वमान्य धार्मिक विश्वास से पुष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य की जाति तथा जातिगत धंधे दैवी विधान से निर्दिष्ट हैं और व्यापक सृष्टि के अन्य नियमों की भाँति प्रकृत तथा अटल हैं ।

जातीय इकाई

एक गाँव में स्थित परिवारों का ऐसा समूह वास्तव में अपनी बड़ी जातीय इकाई का अंग होता है जिसका संगठन तथा क्रियात्मक संबंधों की दृष्टि से एक सीमित क्षेत्र होता है, जिसकी परिधि सामान्यत: 20-25 मील होती है। उस क्षेत्र में जातिविशेष की एक विशिष्ट आर्थिक तथा सामाजिक मर्यादा होती है जो उसके सदस्यों को, जो जन्मना होते हैं, परंपरा से प्राप्त होती है। यह जातीय मर्यादा जीवन पर्यंत बनी रहती है और जातीय धंधा छोड़कर दूसरा धंधा अपनाने से तथा आमदनी के उतार चढ़ाव से उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह मर्यादा जातीय-पेशा, आर्थिक स्थिति, धार्मिक संस्कार, सांस्कृतिक परिष्कार और राजनीतिक सत्ता से निर्धारित होती है और निर्धारकों में परिवर्तन आने से इसमें परिवर्तन भी संभव है। किंतु एक जाति स्वयं अनेक उपजातियों तथा समूहों में विभक्त रहती है। इस विभाजन का आधार बहुधा एक ही पेशे के अंदर विशेषीकरण के भेद प्रभेद होते हैं। किंतु भौगोलिक स्थानांतरण ने भी एक ही परंपरागत धंधा करनेवाली एकाधिक जातियों को साथ साथ रहने का अवसर दिया है। कभी कभी जब किसी जाति का एक अंग अपने परंपरागत पेशे के स्थान पर दूसरा पेशा अपना लेता है तो कालक्रम में वह एक पृथक्‌ जाति बन जाता है। उच्च हिंदू जातियों में गोत्रीय विभाजन भी विद्यमान हैं। गोत्रों की उपायोगिता मात्र इतनी ही है कि वे किसी जाति के बहिविवाही समूह बनाते हैं। और एक गोत्र के व्यक्ति एक ही पूर्वज के वंशज समझे जाते हैं। यह उपजातियाँ भी अपने में स्वतंत्र तथा पृथक्‌ अंतविवाही इकाइयाँ होती हैं और कभी कभी तो बृहत्तर जाति से उनका संबंध नाम मात्र का होता है (दे. गोत्रीय तथा अन्यगोत्रीय)। इन उपजातियों में भी ऊँच नीच का एक मर्यादाक्रम रहता है। उपजातियाँ भी अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है और इनमें भी उच्चता तथा निम्नता का एक क्रम होता है जो विशेष रूप से विवाह संबंधों में व्यक्त होता है। विवाह में ऊँची पंक्तिवाले नीची पंक्तिवालों की लड़की ले सकते हैं किंतु अपनी लड़की उन्हें नहीं देते।

विवरण

शब्दव्युत्पत्ति की दृष्टि से जाति शब्द संस्कृत की 'जनि' (जन) धातु में 'क्तिन्‌' प्रत्यय लगकर बना है। न्यायसूत्र के अनुसार 'समानप्रसावात्मिकाजाति' अर्थात्‌ जाति समान जन्मवाले लोगों को मिला कर बनती है। 'न्यायसिद्धांतमुक्तावली' के अनुसार जाति की परिभाषा इस प्रकार है - नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्वम्जातिवर्त्त्य' अर्थात्‌ जाति उसे कहते हौं जो नित्य है और अपनी तरह की समस्त वस्तुओं में समवाय संबंध से विद्यमान है। व्याकरण शास्त्र के अनुसार जाति की परिभाषा है - 'आकृति ग्रहण जातिलिंगनांचनसर्वं भाक्‌ सकृदाख्यातनिर्गाह्या गोत्रंच चरणै: सह'। अर्थात्‌ जाति वह है जो आकृति के द्वारा पहचानी जाए, सब लिंगों के साथ न बदल जाए और एक बार के बतलाने से ही जान ली जाए। इन परिभाषाओं और शब्दव्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि 'जाति' शब्द का प्रयोग प्राचीन समय में विभिन्न मानवजातियों के लिये नहीं होता था। वास्तव मे जाति मनुष्यों के अंतर्विवाही समूह या समूहों का योग है जिसका एक सामान्य नाम होता है, जिसकी सदस्यता अर्जित न होकर जन्मना प्राप्त होती है, जिसके सदस्य समान या मिलते जुलते पैतृक धंधे या धंधा करते हैं और जिसकी विभिन्न शाखाएँ समाज के अन्य समूहों की अपेक्षा एक दूसरे से अधिक निकटता का अनुभव करती हैं।

जातियों और उपजातियों की निश्चित संख्या

भारत में जातियों और उपजातियों की निश्चित संख्या बताना कठिन है। श्रीधर केतकर के अनुसार केवल ब्राह्मणों की 800 से अधिक अंतर्विवाही जातियाँ हैं। और ब्लूमफील्ड का मत है कि ब्राह्मणों में ही दो हजार से अधिक भेद हैं। सन्‌ 1901 की जनगणना के अनुसार, जो जातिगणना की दृष्टि से अधिक शुद्ध मानी जाती है, भारत में उनकी संख्या 2378 है। डा. जी. एस. घुरिए की प्रस्थापना है कि प्रत्येक भाषाक्षेत्र में लगभग दो सौ जातियाँ होती हैं, जिन्हें यदि अंतर्विवाही समूहों में विभक्त किया जाए तो यह संख्या लगभग 3,000 हो जाती है।

विशेषताएँ

जाति की परिभाषा असंभव मानते हुए अनेक विद्वानों ने उसकी विशेषताओं का उल्लेख करना उत्तम समझा है। डा. जी. एस धुरिए के अनुसार जाति की दृष्टि से हिंदू समाज की छह विशेताएँ हैं -

  1. जातीय समूहों द्वारा समाज का खंडों में विभाजन,
  2. जातीय समूहों के बीच ऊँच नीच का प्राय: निश्चित तारतम्य,
  3. खानपान और सामाजिक व्यवहार संबंधी प्रतिबंध
  4. नागरिक जीवन तथा धर्म के विषय में विभिन्न समूहों की अनर्हताएँ तथा विशेषाधिकार,
  5. पेशे के चुनाव में पूर्ण स्वतंत्रता का अभाव, और
  6. विवाह अपनी जाति के अंदर करने का नियम।

जाति एक स्वायत्त ईकाई

परंपरागत रूप में जातियाँ स्वायत्त सामाजिक इकाइयाँ हैं जिनके अपने आचार तथा नियम हैं और जो अनिवार्यत: बृहत्तर समाज की आचारसंहिता के अधीन नहीं हैं। इस रूप में सब जातियों की नैतिकता और सामाजिक जीवन न तो परस्पर एकरस है और न पूर्णत: समन्वित। फिर भी, भारतीय जातिपरक समाज का समन्वित तथा सुगठित सामुदायिक जीवन है, जिसमें विविधताओं तथा विभिन्नताओं को सामाजिक मान्यता प्राप्त है। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा कुछ वैश्य जातियों को छोड़कर प्राय: प्रत्येक जाति की नियमित तथा आचारों का उल्लंघन करने पर उन्हें दंडित करती है। क्षत्रिय तथा ब्राह्मण जातियाँ भी जातीय जनमत के दबाव से और यदाकदा जातीय बंधुओं की तदर्थ पंचायत द्वारा उल्लंघनकर्ताओं को अनुशासित और दंडित करती हैं। उच्च जातीयों का यह अनुशासन राज्यतंत्र द्वारा भी होता रहा है।

जातियों में ऊँच नीच का भेद

जातियाँ एक दूसरे की तुलना में ऊँची या नीची हैं। एक ओर सबसे ऊपर धार्मिक रूप से पवित्र अथवा सर्वोच्च मानी जानेवाली ब्राह्मण जातियाँ हैं और दूसरी ओर सबसे नीचे अंत्यज श्रेणी की अपवित्र और अछूत कही जानेवाली जातियाँ हैं। इनके बीच अन्य सभी जातियाँ हैं जो सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से उच्च, मध्यम और निम्न श्रेणी में रखी जा सकती हैं। हिंदू धर्मशास्त्रों ने पूरे समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णो में विभक्त किया है। जातियों की सामाजिक मर्यादा का अनुमान करने में इससे सुविधा होती है। किंतु अनेक जातियों की वर्णगत स्थिति अनिश्चित है। उत्तर भारत में जाट, गूजर, अहीर आदि क्षत्रिय होने का दावा करते हैं और कायस्थ जाति के वर्ण के विषय में अनेक धारणाएँ हैं। यही स्थिति उच्च मानी जानेवाली भूमिहार जाति की है।

खानपान और व्यवहार संबंधी प्रतिबंध

एक पंक्ति में बैठकर किसके साथ भोजन किया जा सकता है और किसके हाथ का छुआ हुआ या बनाया हुआ कौन सा भोजन तथा जल आदि स्वीकार्य या अस्वीकार्य है, इसके अनेक जातीय नियम हैं जो भिन्न भिन्न जातियों और क्षेत्रों में भिन्न भिन्न हैं। इस दृष्टि से ब्राह्मण को केंद्र में रखकर उत्तर भारत में जातियों को पाँच समूहों में विभक्त किया जा सकता है। एक समूह में ब्राह्मण जातियाँ है जिनमें स्वयं एक जाति दूसरी जाति का कच्चा भोजन स्वीकार नहीं करती और न एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकती है। ब्राह्मणों को कुछ जातियाँ इतनी निम्न मानी जाती हैं कि उच्चजातीय ब्राह्मणों से उनकी कभी कभी सामाजिक दूरी बहुत कुछ उतनी ही होती है। जितनी उच्च ब्राह्मण जाति और किसी शूद्र जाति के बीच होती है। दूसरे समूह में वे जातियाँ आती हैं जिनके हाथ का पका भोजन ब्राह्मण स्वीकार कर सकता है। तीसरे समूह की जातियों से ब्राह्मण केवल जल ग्रहण कर सकता है। चौथे समूह की जातियाँ यद्यपि अछूत नहीं, तथापि ब्राह्मण उनके हाथ का जल ग्रहण नहीं कर सकता। पाँचवे समूह में वे सब जातियाँ हैं जिपके छूने मात्र से ब्राह्मण तथा अन्य शुद्ध जातियाँ अशुद्ध हो जाती हैं और अशुद्धि दूर करे के लिये वस्त्रों एवं शरीर को धोने तथा अन्य शुद्धिक्रियाओं को आवश्यकता होती है। हिंदू समाज में भोजन संबंधी एक जातीय आचार यह हे कि कच्चा भोजन अपनी जाति के हाथ का ही स्वीकार्य होता है। दूसरी परंपरा यह है कि ब्राह्मण के हाथ का भी कच्चा भोजन ग्रहण किया जाता है। तीसरी परंपरा यह है कि अपने से सभी ऊँची जातियों के हाथ का कच्चा भोजन स्वीकार किया जाता है। सभी जातियाँ पहली परंपरा में हैं और अन्य जातियाँ सामान्यत: बाद के नियमों का अनुसरण करती हैं। एक अछूत जाति दूसरी अछूत जाति के हाथ से न तो कच्चा और न पक्का भोजन स्वीकार करती है, यद्यपि शुद्ध जातियों के हाथ का दोनों प्रकार का भोजन उन्हें स्वीकार्य है। पूर्वी तथा दक्षिणी बंगाल, गुजरात तथा समस्त दक्षिणी भारत में कच्चे तथा पक्के भोजन का यह भेद नहीं है। गुजरात तथा दक्षिणी भारत में ब्राह्मण किसी अब्राह्मण जाति के हाथ से न तो भोजन और न जल ही ग्रहण करता है। उत्तर भारत में अस्पृश्य जातियों से छू जाने पर छूत लगती है किंतु दक्षिण में अछूत व्यक्ति की छाया और उसके निकट जाने से ही छूत लग जाती है। ब्राह्मण को तमिलाड में शाणान जाति के व्यक्ति द्वारा 24 पग से, मालाबार में तियाँ से 36 पग और पुलियाँ से 96 पग की दूरी से छूत लग जाती है। महाराष्ट्र में अस्पृश्य की छाया से उच्चजातीय व्यक्ति अशुद्ध हो जाता है। केरल में नायर जैसी सुसंस्कृत जाति के छूने से नंबूद्री ब्राह्मण अशुद्ध हो जाता है। तमिलनाड में पुराड बन्नान नाम की एक जाति के दर्शन मात्र से छूत लग जाती है।

जातियों की अनर्हताएँ तथा विशेषाधिकार

भारतीय जातिव्यवस्था में कुछ जातियाँ उच्च, पवित्र, शुद्ध और सुविधाप्राप्त हैं और कुछ निकृष्ट, अशुद्ध, अस्पृश्य और असुविधाप्राप्त हैं। ब्राह्मण पवित्र और पूज्य हैं और उन्हें अनेक धार्मिक, सामाजिक तथा नागरिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इनके विपरीत अस्पृश्य जातियाँ हैं। धार्मिक दृष्टि से ये जातियाँ शास्त्रों के पठनपाठन तथा श्रवण के अधिकार से वंचित हैं। इनका उपनयन संस्कार नहीं होता। ब्राह्मण इनके धार्मिक कृत्यों में पौरोहित्य नहीं करता। देवालयों में इनका प्रवेश निषिद्ध है। ये अशुद्ध और अशुद्धिकारक हैं। आर्थिक और व्यावसायिक क्षेत्र में गंदे और निकृष्ट समझे जानेवाले कार्य इनके सुपुर्द हैं जिनसे आय प्राय: अत्यल्प होती है। इनकी बस्तियाँ गाँव से कुछ हटकर होती हैं। ये अनेक सामाजिक और नागरिक अनर्हताओं के भागीदार हैं। नाई और धोबी की शारीरिक सेवाएँ इन्हें उपलब्ध नहीं हैं। ये सार्वजनिक तालाबों, धर्मशालाओं और शिक्षासंस्थाओं का उपयोग नहीं कर सकते। अंत्यजों की दशा उत्तर की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिकहीन है।

18 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक महाराष्ट्र में महार जाति के लोगों को दिन में दस बजे के बाद और 4 बजे के पहले ही गाँव और नगर में घुसने की आज्ञा थी। उस समय भी उन्हें गले में हाँडी और पीछे झाड़ू बाँधकर चलना होता था। दक्षिण भारत में पूर्वी और पश्चिमी घाट के शाणान और इड़वा कुछ काल पूर्व तक दुतल्ला मकान नहीं बनवा सकते थे। वे जूता, छाता और सोने के आभूषणों का उपयोग नहीं कर सकते थे। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक तियाँ और अन्य अछूत जाति की नारियाँ शरीर का ऊर्ध्व भाग ढककर नहीं चल सकती थीं। नाई, कुम्हार, तेली जैसी जातियाँ भी वैदिक संस्कारों और शास्त्रीय ज्ञान के अधिकार से वंचित रही हैं। इसके विपरीत ब्राह्मणों और क्षत्रियों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे। मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मण मृत्युदंड से मुक्त है। हिंदू राजाओं के शासनकाल में ब्राह्मणों को दंड तथा करसंबंधी अनेक रियायतें प्राप्त थीं। धार्मिक कर्मकांडों में पौरोहित्य का एकमात्र अधिकार ब्राह्मण को है। क्षत्रिय भी विशेष सम्मान के अधिकारी हैं। शासन करना उनका अधिकार है। छुआछूत का दायरा बहुत व्यापक है। अछूत जातियाँ भी एक दूसरे से छूत मानती हैं। मालाबार में पुलियन जाति के किसी व्यक्ति को यदि कोई परहिया छू ले तो पुलियन पाँच बार स्नान करके और अपनी एक अँगुली के रक्त निकाल देने के बाद शुद्धिलाभ करता है। श्री ई. थर्स्टन के अनुसार यदि नायादि जाति का व्यक्ति एक सौ हाथ की दूरी पर आ जाए तो सभी अपवित्र हो जाते हौं। उन्हीं के अनुसार यदि ब्राह्मण किसी परहिया अथवा होलिया के घर या मुहल्ले में भी चला जाए तो उससे उनका घर और बस्ती अपवित्र हो जाती है।

जाति और पेशा

प्रत्येक जाति का एक या अधिक परंपरागत धंधा है। कुछ विभिन्न जातियों के समान परंपरागत धंधे भी हैं। आर. वी. रसेल [१] ने मध्यभारत के बारे में बताया है कि वहाँ कृषकों की 40, बुनकरों की 11 और मछुओं की सात भिन्न भिन्न जातियाँ हैं। कृषि, व्यापार और सैनिक वृत्ति आदि कुछ ऐसे पेशे हैं जो प्राय: सभी जातियों के लिये खुले रहे हैं। अछूत इसमें अपवाद हैं, यद्यपि कृषि अनेक अछूत जातियाँ भी करती हैं। आज ईसा की 20 वीं शताब्दी के मध्य तक अधिकांश जातियों के अधिकतर लोग अपने परंपरागत पेशों में लगे हैं। चमड़ा कमाना, जूते बनाना, विष्टा की सफाई आदि कुछ ऐसे गंदे तथा निकृष्ट समझे जानेवाले कार्य हैं। जिन्हें करने की अनुमति अन्य उच्च जातियाँ अपने सदस्यों को नहीं देतीं। इसके विपरीत बुनाई का धंधा अनेक छोटी जातियों ने अपना लिया है। जजमानी व्यवस्था से संबंधित नाई, धोबी, बढ़ई, लोहार, आदि के कुछ ऐसे धंधे हैं जिनपर संबंधित जातियाँ अपना अधिकार मानती हैं। पौरोहित्य पर ब्राह्मण जातियों का एकाधिकार है। यज्ञ कराना, अध्ययन अध्यापन और दान दक्षिणा लेना ब्राह्मणों का जातीय कर्म तथा वृत्ति है। क्षत्रियों का परंपरागत कार्य शासन और सैनिक वृत्ति है।

जातीय समूह सेवा

गाँव में विभिन्न जातीय समूह सेवा की एक ऐसी व्यवस्था में गठित हैं जिसमें अधिकांश जातियाँ दूसरे की परंपरागत रूढ़ियों पर आधारित आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन के लिये उपयोगी, निश्चित तथा विशिष्ट सेवा देती हैं । इसे कुछ विद्वानों ने जजमानी व्यवस्था कहा है। जजमानी व्यवस्था का विस्तार आर्थिक जीवन के साथ साथ सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन में भी है और अनेक सेवक जातियाँ अपने सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन में भी है और अनेक सेवक जातियाँ अपने जजमानों से आर्थिक सेवा के अतिरिक्त सामाजिक उत्सवों और धार्मिक संस्कारों के आधार पर भी संबद्ध हो गई। ब्राह्मण तथा अनेक सेवक जातियों का संबंध तो अपने जजमानों केवल धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन से है। भाट, नट आदि और ब्राह्मणों की अनेक जातियों की गणना इस श्रेणी में की जा सकती है।

सजातीय विवाह

सजातीय विवाह जातिप्रथा की रीढ़ माना जाता है। वास्तव में बहुधा एक जाति में भी अनेक अंतर्विवाही समूह होते हैं जो एक प्रकार से स्वयं जातियाँ हैं और जिनकी पृथक्‌ जातीय पंचायतें, अनुशासन और प्रथाएँ हैं। इन्हें उपजातियों का नाम भी दिया जाता है। सजातीय अथवा अंतर्विवाह के कुछ अपवाद भी हैं। पंजाब के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में उच्च जाति का व्यक्ति छोटी जाति की स्त्री से विवाह कर सकता है। मालाबार में नंबूद्री ब्राह्मण मातृस्थानीय नायर नारी से वैवाहिक संबंध करता है।

उत्पत्ति

भारत में जाति प्रागैतिहासिक काल से मिलती है। इसकी उत्पत्ति के कारण और काल के विषय में अनेक मत हैं जो सब अनुमान पर आधारित हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि श्वेतवर्णं विजेता आर्यो ओर श्यामवर्ण विजित अनार्यो के संघर्ष से आर्य ओर दास दो जातियों का उदय हुआ और कालक्रम में वर्णसांकर्य, धर्म, व्यवसाय, श्रमविभाजन, संस्कृति, प्रवास तथा भौगोलिक पार्थक्य से हजारों जातियाँ उत्पन्न हुईं। दूसरा प्रबल मत है कि जाति का उदय अनार्य समाज में आर्यो के आगमन से पहले हो चुका था और आर्यो के आगमन ने उसमें अपना योगदान किया। इस मत के समर्थकों का कहना है कि 'माया', 'जीवतत्ववाद' 'अभिनिषेध' (टैबू) और जादू आदि की भावनाओं से प्रभावित विभिन्न समूह जब एक दूसरे के संपर्क में आए तो वे अपने विश्वास, संस्कृति, प्रजापति, धार्मिक कर्मकांड आदि के कारण एक दूसरे से पृथक्‌ बने रहे। क्योंकि अनेक जातीय समूहों का विश्वास था कि खाद्य पदार्थो तथा व्यवसायिक उपकरणों पर परकीय प्रभाव अनिष्टकारी होता है। अत: छुआछूत और अंतर्विवाह (सजातीय विवाह) संयुक्त समाज के अंग बने। संयोग से जाति को कर्मवाद का आधार भी मिल गया। व्यवसाय, क्षेत्रीयता, वर्णसांकर्य आदि अनेक तत्वों ने उसे प्रभावित, परिवर्तित और दृढ़ किया। आर्यो के आगमन ने इस नया रूप दिया और जातिप्रथा आर्यो में भी प्रविष्ट हुई। वैदिक साहित्य के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रारंभ में भारतीय आर्यो में तीन वर्ग थे जो समस्त संसार के आर्यो की विशेषता थी और जो जातियों से मूलत: भिन्न थे।

वर्ण तथा जाति

हिंदू शास्त्रों के मत से जाति का मूल वर्णो में है। ऋग्वेद के 10 वें मंडल के पुरुषसूक्त के अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय), जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार मानव सृष्टि के प्रारंभ से ही चार वर्णो की उत्पत्ति मानी गई है। मनु आदि स्मृतिकारों ने प्रत्येक वर्ण के व्यक्ति के सामाजिक और व्यक्तिगत कार्य, जीविका, शिक्षा दीक्षा, संस्कार और कर्तव्य तथा अधिकार संबंधी नियमों का विधान किया है। वर्णव्यवस्था में पुरोहित तथा अध्यापक वर्ग ब्राह्मण, शासक तथा सैनिक वर्ग राजन्य या क्षत्रिय, उत्पादक वर्ग वैश्य और शिल्पी एवं सेवक वर्ग शूद्रवर्ण हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि वैदिक आर्य समाज में तीन अस्पष्ट वर्ग थे। वास्तव में उस समय गौरवर्ण आर्य और श्यामवर्ण दास दो ही वर्ण थे जिन्हें एक ओर तो त्वचा का गौर और श्याम रंगभेद और दूसरी ओर विजेता और विजित का सत्तागत भेद और सांस्कृतिक भिन्नत्व एक दूसरे से पृथक्‌ करता था। दासवर्ण बाद में शूद्रवर्ण हुआ और इसके साथ आर्यो के तीनों वर्गो ने मिलकर चातुर्वर्ण्य की सृष्टि की। जो जनजातियाँ, आर्य समाज से दूर रहीं उन्हें वर्णव्यवस्था में सम्मिलित नहीं किया गया। वर्णों मे अंतर्विवाह का निषेध नहीं था और इस निषेध का न होना मूल आर्य समाज की परंपरा के अनुकूल था। केवल प्रतिलोम विवाह निषिद्ध थे। हिंदू धर्मशास्त्रों ने जातियों को नहीं, वर्णों को मान्यता दी है, यद्यपि स्वयं वेदों और स्मृतियों में अनेक जातियों का उल्लेख है जो वस्तुत: या तो अनार्य सभ्य जातियाँ हैं, या सभ्य समाज के संपर्क में आए अनार्य जन जातीय समूह हैं। जातिभेद का मूल (आरंभ) आर्यो में नहीं था। अत: जाति शास्त्रकारों द्वारा आपेक्षित रही है। आर्यमूल की उच्च जातियों में जातीय पंचायतों की अनुपस्थिति भी मूल आर्य समाज की जातिविहीन स्थिति की द्योतक है। परंतु हिंदू समाज में जातियों का मौलिक महत्व है और ये वर्णो से भिन्न हैं। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जिनका वर्णं अनिश्चित और विवादास्पद है, जबकि सभी की जाति निश्चित और संदेह से परे है। वर्णो का सामाजिक मर्यादाक्रम असंदिग्ध और निश्चित है, जबकि जातियों का एक सीमा तक निश्चित होते हुए भी संदिग्ध और विवादास्पद रहता है। सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से जातियाँ स्थानीय तथा क्षेत्रीय और वर्णं सार्वदेशिक हैं अर्थात्‌ जातियों में स्थानभेद से मर्यादाभेद हो जाता है। वर्णव्यवस्था में दो वर्णो के बीच विवाहसंबंध निषिद्ध नहीं है, केवल प्रतिलोम विवाह निषिद्ध है। जातिव्यवस्था में अंतर्जातीय विवाह सर्वथा निषिद्ध है। वर्ण समाज की क्रियात्मक वास्तविक इकाइयाँ नहीं हैं और जातितत्व जीवन के प्राय: सभी अंगों में समाविष्ट है। जाति के कारण वर्णो की गतिशीलता अवरुद्ध है और व्यक्ति के लिये वर्णांतर उसी प्रकार असंभव है जिस प्रकार जात्यंतर, क्योंकि व्यक्ति मूलत: जाति से संबद्ध है और जाति के साथ ही उसका वर्णांतर हो सकता है। वर्णविभाजन में किसी जाति का स्थान उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक है। अंत्यज या अछूत जातियाँ यद्यपि हिंदू समाज क अंग हैं तथापि वर्णव्यवस्था में उनका कोई स्थान नहीं है। दक्षिण भारत में क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णं की मान्य जातियाँ हैं ही नहीं। जिन जातियों ने इन वर्णों के पेशे अपना लिए हैं उन्हें आज भी शूद्र ही माना जाता है, यद्यपि वे सब क्षत्रिय या वैश्य होने का दावा करती हैं। केरल के राजवंशों तक की यही स्थिति थी। हिंदुओं के कर्मवाद ने जातिव्यवस्था को धार्मिक आश्रय प्रदान किया और यह आश्रय जाति को दृढ़ तथा स्थायी बनाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जाति के साथ सामान्य हिंदू का तादात्म्य धर्म की उपेक्षा और अवज्ञा कर सकता है किंतु जातीय बंधनों, प्रथाओं और आचार व्यवहार का उल्लंघन उसके लिये कठिन है। वास्तव में अधिकांश लोगों की धारणा में धर्म और जाति का भेद है ही नहीं।

प्रजातीय तत्व

भारत उपमहाद्वीप में प्रागैतिहासिक काल से संसार की विभिन्न प्रजातियों का मिश्रण होता रहा, और यद्यपि कुछ क्षेत्रों और जातीय समूहों में एक या दूसरी प्रजाति के लक्षण बहुलता से परिलक्षित हैं, तथापि प्रजातीय भेद और जाति में अटूट संबंध स्थापित नहीं किया जाता। एच. एच. रिजली ने पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार की कुछ जातियों के नासिकामापन से यह निष्कर्ष निकाला कि आर्य प्रजाति का अंश जिस जाति में जितना अधिक या कम है उसका मोटे तौर पर सामाजिक स्थान उतना ही ऊँचा या नीचा है। किंतु डाक्टर जी. एस. धुरए और अन्य जातिविदों ने मानवमितिक नापों के आधार पर रिजली की प्रस्थापना का खंडन किया है। भारत के जातीय समूहों में प्रजातीय मिश्रण व्यापक है और यह मिश्रण विभिन्न जातियों, उपजातियों तथा क्षेत्रों में भिन्न भिन्न है। संभवत: भारत के प्राचीनतम निवासी निग्रिटो मानव जाति के थे। इनके वंशज प्राय: अमिश्रित अवस्था में आज भी अंडमान में हैं१ इनके अतिरिक्त नाटा कद, काला रंग और ऊन सरीखे बालवाली काडर, इरला, और पणियन जैसी दक्षिण भारत की वन्य जातियों में तथा उत्तरपूर्व की कुछ नागा जनजातियों में निग्रिटो मानव जाति का मिश्रण परिलक्षित है। निग्रिटो के पश्चात्‌ भारत में संभवत: निषाद (आस्ट्रिक) मानव जाति का पदार्पण हुआ जिसके शारीरिक लक्षणों में दीर्घ कपाल, पृथु नासिका, मझोला कद और घुंघराले बाल तथा चाकलेटी श्यामल वर्ण है। निषादों का मिश्रण समस्त भारत में और विशेषकर छोटी जातियों में अधिक है। दक्षिण की अधिकांश वन्य जातियाँ और कोल संथाल, मुंडा, और भील मूलत: इसी वंश की जनजातियाँ हैं। मुसहर, चमार, पासी आदि जातियों में भी इसी मानव जाति क अंश अधिक परिलक्षित होता है। दीर्घ कपाल और मध्यम नासिका तथा श्याम वर्णवाली द्रविड़ जाति का प्रभाव दक्षिण भारत पर सबसे अधिक है। किंतु मध्य और समस्त उत्तर भारत की आबादी में भी इसका व्यापक मिश्रण है। ऐसा प्रतीत होता है कि द्रविड़ जाति का उत्तर भारत में निषाद, किरात (मंगोल) और आर्य रक्त से मिश्रण हुआ तथा इन लोगों ने आर्य भाषाओं को ग्रहण कर लिया। गोंड, खोंड और बेंगा जनजातियाँ इसी वंश का हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में निग्रिटों, निषाद (आस्ट्रिक), द्रविड़ किरात (मंगोलायड) और आर्य जातियों का मिश्रण हुआ है। इनके अतिरिक्त गोल सिर और मध्यम कद वाली अर्मिनायड मानव जाति का मिश्रण द्रविड़ जाति से या तो भारत में आने पर या उसके पूर्व ही हुआ। दक्षिण तथा मध्य भारत ओर बंगाल में इस जाति के लक्षण स्पष्ट हैं। प्रजातीय मिश्रण की दृष्टि से भारत उत्तर-पश्चिम में आर्य, उत्तर-पूर्वं में किरात तथा निषाद और दक्षिण में द्रविड़ तथा निषाद मानव जातियों के लक्षण अधिक प्रबल हैं।

भारत के अहिंदुओं में जातित्व

भारत में जाति सर्वव्यापी तत्व है। ईसाइयों, मुसलमानों, जैनों और सिखों में भी जातियाँ हैं और उनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है, फिर भी उनमें जाति का वैसा कठोर रूप और सूक्ष्म भेद प्रभेद नहीं है जैसा हिंदुओं में है। ईसा की 12 वीं शती में दक्षिण में वीर शैव संप्रदाय का उदय जाति के विरोध में हुआ था। किंतु कालक्रम में उसके अनुयायिओं की एक पृथक्‌ जाति बन गई जिसके अंदर स्वयं अनेक जातिभेद हैं। सिखों में भी जातीय समूह बने हुए हैं और यही दशा कबीरपंथियों की है। गुजरात की मुसलिम बोहरा जाति की मस्जिदों में यदि अन्य मुसलमान नमाज पढ़े तो वे स्थान को धोकर शुद्ध करते हैं। बिहार राज्य में सरकार ने 27 मुसलमान जातियों को पिछड़े वर्गो की सूची में रखा है। केरल के विभिन्न प्रकार के ईसाई वास्तव में जातीय समूह हो गए हैं। मुसलमानों और सिक्खों की भाँति यहाँ के ईसाइयों में अछूत समूह भी हैं जिनके गिरजाघर अलग हैं अथवा जिनके लिये सामान्य गिरजाघरों में पृथक्‌ स्थान निश्चित कर दिया गया है। किंतु मुसलमानों और सिखों के जातिभेद हिंदुओं के जातिभेद से अधिक मिलते जुलते हैं जिसका कारण यह हे कि हिंदू धर्मं के अनुयायी जब जब इस्लाम या सिख धर्म स्वीकार करते हें तो वहाँ भी अपने जातीय समूहों को बहुत कुछ सुरक्षित रखते हैं और इस प्रकार सिखों या मुसलमानों की एक पृथक्‌ जाति बन जाती है।

जाति की गतिशीलता

भारत में जाति चिरकालीन सामाजिक संस्था है। ई. ए. एच. ब्लंट के अनुसार जातिव्यवस्था इतनी परिवर्तनशील है इसका कोई भी स्वरूपवर्णन अधिक दिनों तक सही नहीं रहता। इसका विकास अब भी जारी है। नई जातियों तथा उपजातियों का प्रादुर्भाव होता रहता है और पुरानी रूढ़ियों का क्षय हो जाता है। नए मानव समूहों को ग्रहण करने की इसमें विलक्षण क्षमता रही है। कभी कभी किसी क्षेत्र की कोई संपूर्ण जाति या उसका एक अंग धार्मिक संस्कारों तथा सामाजिक रीतियों में ऊँची जातियों की नकल करके और शिक्षा तथा संपत्ति, सत्ता और जीविका आदि की दृष्टि से उन्नत होकर कालक्रम में अपनी मर्यादा को ऊँचा कर लेती है। इतिहास में अनेक ऐसे भी उदाहरण हैं जब छोटी या शूद्र जातियों के समूहों को राज्य की कृपा से ब्राह्मण तथा क्षत्रिय स्वीकार कर लिया गया। जे. विलसन और एच. एल. रोज के अनुसार राजपूताना, सिंघ और गुजरात के पोखराना या पुष्करण ब्राह्मण, और उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के आमताड़ा के पाठक और महावर राजपूत इसी प्रक्रिया से उच्च जातीय हो गए। ऐसा देखा गया है कि जातियों का उच्च या निम्न स्थान धार्मिक अनुष्ठान तथा सामाजिक प्रथा, आर्थिक स्थिति तथा सत्ता द्वारा स्थिर और परिवर्तित होता है। इसके अतिरिक्त कुछ पेशे गंदे तथा निकृष्ट और कुछ शुद्ध तथा श्रेष्ठ माने जाते हैं। चमड़े का काम, मल मूत्र की सफाई कपड़ों की धुलाई आदि गंदे पेशे हैं; बाल काटना, मिट्टी और धातु के बर्तन बनाना, टोकरी, सूप आदि बनाना, बिनाई, धुनाई आदि निम्न कार्य हैं; खेती, व्यापार, पशुपालन, राजा की नौकरी मध्यम ओर विद्याध्ययन, अध्यापन, तथा शासन श्रेष्ठ कार्य हैं। इसी प्रकार भोजन के कुछ पदार्थ उत्तम और कुछ निकृष्ट माने जाते हैं। मृत पशु, विष्ठोपजीवी शूकर तथा मांसाहारी गीदड, कुत्ते, बिल्ली आदि का मांस निकृष्ट खाद्य माना जाता है। शाकाहार करना और मदिरात्याग उत्तम है। धार्मिक संस्कार और उनकी विधियों का भी बहुत महत्व है। स्त्रियों का पुनर्विवाह और विधवाविवाह उच्च जातियों में निषिद्ध और निम्न जातियों में स्वीकृत है। यह निषेध धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से उत्तम माना जाता है।

अत: जब कोई जाति अपनी मर्यादा को ऊँचा करने के लिये प्रयत्नशील होती है तो ऊँची जातियों के धार्मिक संस्कारों को अपनाती है और निकृष्ट भोजन, मद्यपान, स्त्रियों के पुनर्विवाह और विधवाविवाह पर रोक लगा देती है। यद्यपि जातीय गतिशीलता हिंदू समाज के सभी स्तरों में, एक ही स्तर के अंदर और विभिन्न स्तरों के बीच विद्यमान है तथापि अंत्यज वर्ग की जातियों क ऊपर के स्तरों में पहुँचना अभी तक असंभव ही बना हुआ है। ऐसा भी देखा गया है कि संस्कार, संपत्ति और सत्ता की दृष्टि से उन्नत होने पर भी किसी जाति के उच्च श्रेणी संबंधी दावे को मान्यता नही मिली। कुछ भी हो आधुनिक युग में जातीय गतिशीलता अनेक दिशाओं में बढ़ रही है। पश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने एक नई धारा प्रवाहित की है। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से उच्चशिक्षाप्राप्त वे लोग जो ऊँचे सरकारी पदों पर हैं या उद्योग तथा व्यापार में उन्नति कर गए हैं, अपने खान पान और रहन सहन को बदल रहे हैं और जातीय आचार व्यवहार का पालन नहीं करते अथवा उसकी उपेक्षा करते हैं। फिर भी, अपनी जाति से इनका संबंध बना रहता है, और इन्हें जाति से विशेष प्रतिष्ठा तथा समान भी प्राप्त होता है। नगरों तथा औद्योगिक केंद्रों में अनेक जातीय भेदभाव तथा बंधन - जैसे खानपान के प्रतिबंध, पेशे तथा व्यवसाय संबंधी रुकावटें - और छुआछूत की कठोरता तीव्रता से समाप्त हो रही है। परंतु विवाह अब भी अपनी जाति के ही अंदर होता है, यद्यपि इस दिशा में भी परिवर्तन परिलक्षित हैं। अनेक जातियों की उपजातियों में विवाह संबंध सुगम हो गया है और विशेषकर उच्च जातियों में अंतर्जातीय विवाहों को स्वीकार किया जाने लगा है। कानूनी रूप से न्याय और दंड का अधिकार जाति पंचायतों के अधीन न रहने से भी उनकी शक्ति और प्रभाव बढ़ाने के लिये प्रयत्नशील हैं और इनके ये प्रयत्न राजनीतिक गतिविधियों में अभिव्यक्त होते हैं स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद उत्तर प्रदेश में 'अजगर' दल (अहीर, जाट, गूजर, और राजपूत) और शोषित वर्गसंघ का संघटन हुआ। महाराष्ट्र में श्री भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में पहले दलित वर्गसंघ और बाद में रिपब्लिकन पार्टी बनी और दक्षिण भारत में पहले जस्टिस पार्टी और स्वतंत्रप्राप्ति के बाद द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम्‌ का संघटन हुआ। देश के लोकतांत्रिक निर्वाचनों में जातितत्व प्रमुख हो जाता है, सरकारी नौकरियों और सुविधाओं की प्राप्ति में भी जातीय पक्षपात प्रतिलक्षित होता है। इस प्रकार राजनीति में जाति का विशेष स्थान हो गया है। 20 वीं शताब्दी के आरंभ से ही भौगोलिक दृष्टि से भी जातीय संघटन व्यापक होते जा रहे हैं और नए ढ़ग से अपने को संगठित कर रहे हैं।

भारतीय संविधान और कानून की दृष्टि से छुआछूत का व्यवहार दंडनीय अपराध है। संविधान ने अनुसूचित जातियों (दलित जातियों) और जनजातियों के लिये अनेक प्रकार के आरक्षण का वैधानिक प्राविधान किया है, जिसके अंतर्गत संसद तथा राज्यों के विधानमंडलों में आरक्षित स्थान निश्चित किए गए हैं। इसी प्रकार केंद्रीय तथा राज्य सरकारों की नौकरियों में भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये स्थान आरक्षित हैं। इन जातियों को यह आरक्षण अंतरिम काल के लिये दिया गया है।

जातिव्यवस्था के गुण दोष

भारतीय जातिव्यवस्था प्रागैतिहासिक काल से एक दृढ़ सामाजिक आर्थिक संस्था के रूप में विद्यमान है। निस्संदेह इस व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता अति सीमित है और वह जातिविशेष, जातीय शाखाविशेष तथा परिवारविशेष के सदस्य के रूप में जाना और माना जाता है। असमानता इसका दूसरा लक्षण है। इस व्यवस्था में व्यक्तिगत योग्यता तथा आकांक्षाओं का विशेष महत्व नहीं है। फिर भी, इस व्यवस्था ने समाज को एक ऐसी विलक्षण स्थिरता और व्यक्तियों को ऐसी शांति और सुरक्षा प्रदान की है जो अन्यत्र दिखाई नहीं देती। जातियों के आंतरिक संघटन, जजमानी व्यवस्था और पारिवारिक दायित्वों के द्वारा व्यक्ति को सभी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा मिलती रही है। इसमें अनाथ बच्चों का पालन पोषण, विधवाओं, रोगियों अपाहिजों और वृद्धों की देखरेख तथा आश्रय की व्यवस्था है। किंतु जाति व्यवस्था का आधुनिक औद्योगिक अर्थप्रणाली और जनतांत्रिक स्वतंत्रता तथा समाजवादी समानता के मूल्यों से मेल नहीं बैठता और लगता है कि वह विरोध बुनियादी है। आर्थिक विकास के लिये जिस व्यावसायिक तथा भौगोलिक गतिशीलता की आवश्यकता है, जातीय बंधन उसमें बाधक है। अब यह देखनरा है कि वर्तमान निरंतर परिवर्तनशील और संक्रांति युग में जाति अपना स्वरूप बदलकर सामाजिक संबंधों में युगानुकूल नया सामंजस्य स्थापित करती है या निष्प्रयोज्य और अवरोधक बनकर समाप्त हो जाती है।

अन्य देशों में जातितत्व

जातिव्यवस्था भारतीय समाज की विशेषता है। वह ऐसी स्थिर वस्तु मानी गई है। जिसमें व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा जन्म से निश्चित होकर आजीवन अपरिवर्तनीय रहती है। ऐतिहासिक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि प्राचीन मिस्रं और पश्चिमी रोम साम्राज्य में भी इस प्रकार की व्यवस्था थी जिसमें कार्य विभाजन से उत्पन्न पेशे और पद वंशानुगत कर दिए गए थे। ईसा की ५वीं शताब्दी में रोम साम्राज्य की विधिसंहिता के अधीन सभी धंधे और प्रशासनिक कार्य वंशानुगत थे। विवाहसंबंध अपनी बिरादरी में ही हो सकता था। प्राचीन मिस्र में पुरोहित, सैनिक, लेखक, चरवाहे, सुअर पालनेवाले और व्यापारियों के पृथक्‌ पृथक्‌ वर्ग थे जिनके पेशे और पद वंशानुगत थे। कोई कारीगर अपना पैतृक धंधा छोड़कर दूसरा धंधा नहीं कर सकता था। उसका अपने वर्ग से संबंध अटूट था। सुअर पालने वाले अछूत माने जाते थे और उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। वैवाहिक दृष्टि से उनकी अंतर्विवाही जाति थी। सैनिक, पुरोहित और लेखक एवं अध्यापक उच्चवर्ग में थे और एक ही परिवार में तीनों प्रकार के व्यक्ति हो सकते थे। परंतु अन्य वर्गो के लिये उनके पैतृक पेशे निर्धारित थे। इस प्रकार मिस्र और प्राचीन रोम में वर्गो के विभाजन का रूप वैसा न था जैसा भारत में मिलता है। न तो खानपान और छुआछूत संबंधी प्रतिबंध थे और न अंतवर्गीय विवाहों पर धार्मिक या सामाजिक रोक थी। पेशों के संबंध में भी रोम तथा मिस्र दोनों देशों में शासन की ओर से रोक लगाई गई थी।

जापान में सैनिक सामंतवाद (12वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के मध्य तक) के शासनकाल में अभिजात सैनिक समुराई वर्ग के अतिरिक्त कृषक, कारीगर, व्यापारी और दलित वर्ग थे। समुराई शासन सुविधासंपन्न वर्ग था, जिसके लिये विशेष कानूनी व्यवस्था और अदालतें थीं। दलित वर्ग में एता और हिनिन दो समूह थे जो समाज के पतित अंग माने जाते थे और गंदे तथा हीन समझे जानेवाले कार्य उनके सपुर्द थे। विभिन्न वर्ग विवाह की दृष्टि से अंतर्विवाही समूह थे और दो वर्गो के व्यक्तियों में विवाह के लिये शासन से विशेष आज्ञा लेने का आवश्यकता होती थी। चीन में शासकीय पदों के लिये अबाध परीक्षा का नियम था जो सभी वर्गो के लिये खुली थी। परंतु नाइयों का एक पृथक्‌ और पतित वर्ग माना जाता था जिसको न तो शासकीय परीक्षाओं में भाग लेने की अनुमति थी और न कोई अन्य वर्ग का व्यक्ति इनसे विवाहसंबंध करता था। अन्य वर्गो में पेशे साधारणत: वंगानुगत थे। परंतु इस संबंध में और अंतर्विवाह के संबंध में भी कठोर सामाजिक नियम नहीं थे। कोर्नियों में विभिन्न वर्ग सदा अपने वर्ग में ही विवाह करते हैं। किंतु मध्यम वर्ग के व्यक्ति दास वर्ग की स्त्रियों से विवाह कर लेते हैं। कैरोलिन में दासों के अतिरिक्त उच्च और निम्न दो वर्ग हैं। निम्न वर्ग का व्यक्ति यदि उच्च वर्ग के व्यक्ति को छू ले तो वह अपराधी माना जायगा जिसका दंड मृत्यु है। निम्न वर्ग के लोग मछली का शिकार तथा नाविक का कार्य नहीं कर सकते। अफ्रीका में लोहारों का समूह प्राय: शेष समाज से पृथक्‌ रखा जाता है और इस वर्ग के लोग अपनी बिरादरी में ही विवाह करते हैं। बर्मा में पैगोडा का दासवर्ग एक पृथक्‌ और अंतर्विवाही समूह है और उनका पेशा वंशानुगत है। वहाँ के राजाओं के काल में छह हीन वर्ग समझे जाते थे जो शेष समाज से पृथक्‌ रहते थे। उनसे न तो कोई अन्य बर्मी विवाह तथा खानपान का संबंध करता था और न उनके पेशों को अपनाता था। इन वर्गो में थे पैगोडा के दास, पुलिस का काम करनेवाले तथा फाँसी देनेवाले लोग, कोढ़ी, असाध्य रोगों से पीड़ित, विकलांग, मुरदों को दफन करनेवाले लोग तथा राजा के खेतों में काम करनेवाले दास।

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन काल में और सामंतवादी व्यवस्था में पेशों और पदों की वंशानुगत करने को प्रवृत्ति प्राय: सभी देशों में थी। इनके अतिरिक्त अनेक देशों में कुछ समूह ऐसे भी दिखाई देते हैं जो शेष समाज से पृथक्‌ और हीन हैं तथा अनेक नागरिक और धार्मिक सुविधाओं से वंचित हैं। सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से विभिन्न वर्गों का श्रेणीविभाजन तो सभी देशों में रहा है। भारतीय उच्च वर्गो की भाँति अन्यत्र भी उच्च वर्गो को प्राय: सांपत्तिक, नागरिक और धार्मिक विशेषाधिकार प्राप्त रहे हैं। छुआछूत और अंतर्विवाहों पर निषेध के कुछ उदाहरण भी जहाँ तहाँ मिलते हैं। प्राचीन मिस्र, मध्यकालीन रोम और सामंती जापान में राज्य की ओर से अंतर्विवाहों पर प्रतिबंध लगा दिए गए थे और पेशों को वंशानुगत कर दिया गया था। वंशानुगत पेशे, बिरादरी में ही विवाह का नियम और छुआछूत आदि भारतीय जाति के प्रमुख तत्वों में हैं। किंतु भारत के बाहर वर्तमान समय में या पुराने इतिहास में ऐसे किसी समाज का अस्तित्व दिखाई नहीं देता जो स्वत: उद्भूत जातीय व्यवस्था से परिचलित हो और जहाँ जातिव्यवस्था समाज का स्वभाव बन गई हो।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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  1. R.V. Russel