भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-100
भागवत धर्म मिमांसा
4. बुद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक
बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः।
गुण कैसे होते हैं? तो कहते हैं : गुणस्य माया मूलत्वात् – सारे गुण मायामूलक हैं। वे टिकते ही नहीं। अभी आप मेरा प्रवचन सुन रहे हैं। इस समय आप में सत्वगुण है। मान लीजिये, मेरा प्रवचन दो-तीन घण्टे चलता रहा, तो आप सब झपकी लेने लगेंगे। यानी आप में तमोगुण आ जाएगा। भूख लग जाय तो रजोगुण आ जाएगा। मतलब यह कि गुण समय-समय पर बदलते रहते हैं। अतएव गुणों के कारण जो बनता है, वह वास्तव में है ही नहीं। बद्ध और मुक्त गुण के परिणाम हैं, इसलिए वे भी वास्तव में नहीं हैं।इसीलिए भगवान् कहते हैं कि मेरी दृष्टि में न बन्धन है और न मोक्ष। बन्धन मिथ्या है और मोक्ष भी मिथ्या है। इतना सारा कहकर भगवान् क्या कहना चाहते हैं? इससे क्या बना? इसमें बनने का कुछ भी नहीं है। हमें मानव बनना है, लेकिन हम मानव से भी बढ़कर हैं। आपसे पूछा जाए कि ‘आप कौन हैं?’ तो कहेंगे :‘हम पंजाब के हैं।’ फिर कहेंगे :‘भारतीय हैं।’ जब यह बन्धन हट जाएगा तो कहेंगे :‘हम मानव हैं।’ लेकिन इतना कहने से हम व्यापक नहीं बन सकते। ‘हम सभी भूतों में सम्मिलित हैं’ ऐसी हमारी भावना होनी चाहिए। फिर गाय, घोड़ा, बैल, गदहा, बाबा सब एक हो जाते हैं। लेकिन यह कौन कबूल करेगा? फिर भी यह स्पष्ट है कि जब तक बाबा यह नहीं समझता कि मैं गधे जैसा ही हूँ, तब तक वह बन्धन में ही है। ‘मैं भूतमात्र हूँ’ ऐसी भावना होनी चाहिए। मैंने ‘गीता-प्रवचन’ में अनुभव की एक मिसाल दी है – हम दरवाजा खोलते और बन्द करते हैं। वह आवाज करता है। मतलब यह कि वह रो रहा है। उसे तेल दे दो तो शान्त हो जाएगा। चरखा चलना शुरू करें तो वह भी रोता है और तेल दे दो तो खुश हो जाता है। मतलब यह कि चरखा और मैं समान हूँ। वह भी सदानन्दरूप है और मैं भी सदानन्दरूप। सारांश, जिसे सृष्टि के साथ एकरूप होना सध गया, वह मुक्त हो गया! मुक्त हुआ यानी क्या? वास्तव में हम वही हैं, लेकिन बेवकूफी से मुक्त हो गये। यह केवल पहचानने की बात है। दूसरे लोग भले ही हमें मुक्त कहें, हम इतना ही कहेंगे कि ‘हम हैं।’ यदि आप सूर्यनारायण से कहें कि ‘आप अन्धेरा दूर करते हैं, दुनिया का कितना बड़ा काम कर रहे हैं’ तो वे कहेंगे :‘मैं तो कुछ करता ही नहीं। अन्धेरा है कहाँ?’ सूर्यनारायण यह नहीं कहते कि ‘मैं अन्धेरा दूर करता हूँ।’ इसी तरह मुक्त पुरुष, दुनिया में है तो, आपसे यही कहेगा कि ‘मैं नहीं जानता कि मुक्ति क्या चीज है। आप ही बताइये कि वह क्या है?’ कारण वह जानता ही नहीं कि वह मुक्त है। इसलिए यहाँ न बनाने की बात है और न बनने की। वह है ही। ये बन्धन और मोक्ष वास्तविक नहीं, प्रतिभासिक मात्र हैं। आगे भगवान् कह रहे हैं कि मनुष्य को जो शोक-मोह, सुख-दुःख होते हैं, वे सारे देहजन्य हैं। वे भी वास्तविक नहीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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