महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 37-53
दशम (10) अध्याय: आश्रमवासिकापर्व (आश्रमवास पर्व)
‘अपने सहायकों सहित राजा दुर्योधन इन श्रेष्ठ द्विजों के आशीर्वाद से वीरलोक प्राप्त करें और स्वर्ग में सुख एवं आनन्द भोगे। ‘आप भी पुण्य एवं धर्म में ऊँची स्थिति प्राप्त करें । आप सम्पूर्ण धर्मों को ठीक ठीक जानते हैं, इसीलिये उत्तम व्रतों के अनुष्ठान में लग जाइये। ‘आप जो हमारी देखरेख करने के लिये हमें पाण्डवों को सौंप रहे हैं, वह सब व्यर्थ है । ये पाण्डव तो स्वर्ग का भी पालन करने में समर्थ हैं; फिर इस भूमण्डल की तो बात ही क्या है। ‘बुद्धिमान कुरूकुल श्रेष्ठ ! समस्त पाण्डव शीलरूपी सद्गुण से विभूषित हैं, अतः भले बुरे सभी विषयों में सारी प्रजा निश्चय ही उनका अनुसरण करेगी। ‘ये पृथ्वीनाथ पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर अपने दिये हुए तथा पहले के राजाओं द्वारा अर्पित किये गये ब्राह्मणों के लिये दातव्य अग्रहारों (दान में दिये गये ग्रामों) तथा पारिबर्हों (पुरस्कार में दिये गये ग्रामों) की भी रक्षा करते ही हैं। ‘ये कुन्तीकुमार सदा कुबेर के समान दीर्घदर्शी, कोमल स्वभाव वाले और जितेन्द्रिय हैं । इनके मन्त्री भी उच्च विचार के हैं । इनका हृदय बड़ा ही विशाल है। ‘ये भरतकुलभूषण युधिष्ठिर शत्रुओं पर भी दया करने वाले और परम पवित्र हैं । बुद्धिमान होने के साथ ही ये सबको सरलभाव से देखने वाले हैं और हम लोगों का सदा पुत्रवत् पालन करते हैं। ‘राजर्षे ! इन धर्मपुत्र युधिष्ठिर के संसर्ग से भीमसेन और अर्जुन आदि भी इस जनसमुदाय (प्रजावर्ग) का कभी अप्रिय नहीं करेंगे। ‘कुरूनन्दन ! ये पाँचों भाई पाण्डव बड़े पराक्रमी, महामनस्वी और पुरवासियों के हितसाधन में लगे रहने वाले हैं । ये कोमल स्वभाव वाले सत्पुरूषों के प्रति मृदुतापूर्ण बर्ताव करते हैं, किंतु तीखे स्वभाव वाले दुष्टों के लिये ये विषधर सर्पों के समान भयंकर बन जाते हैं। ‘कुन्ती, द्रौपदी, उलूपी और सुभद्रा भी कभी प्रजाजनों के प्रति प्रतिकूल बर्ताव नहीं करेंगी। ‘आपका प्रजा के साथ जो स्नेह था, उसे युधिष्ठिर ने और भी बढ़ा दिया है । नगर और जनपद के लोग आप लोगों के इस प्रजा प्रेम की कभी अवहेलना नहीं करेंगे। ‘कुन्ती के महारथी पुत्र स्वयं धर्मपरायण रहकर अधर्मी मनुष्यों का भी पालन करेंगे। ‘अतः पुरूषप्रवर महाराज ! आप युधिष्ठिर की ओर से अपने मानसिक दुःख को हटाकर धार्मिक कार्यों के अनुष्ठान में लग जाइये । आपको समस्त प्रजा का नमस्कार है’। वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! साम्ब के धर्मानुकूल और उत्तम गुणयुक्त वचन सुनकर समस्त प्रजा उन्हें सादर साधुवाद देने लगी तथा सबने उनकी बात का अनुमोदन किया। धुतराष्ट्र ने भी बारंबार साम्ब के वचनों की सराहना की और सब लोगों से सम्मानित होकर धीरे धीरे सबको विदा कर दिया । उस समय सबने उन्हें शुभ दृष्टि से ही देखा। भरतश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् धृतराष्ट्र ने हाथ जोड़कर उन ब्राह्मण देवता का सत्कार किया और गान्धारी के साथ फिर अपने महल में चले गये । जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब उन्होनें जो कुछ किया, उसे बता रहा हूँ, सुनो।
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