भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-113

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भागवत धर्म मिमांसा

5. वर्णाश्रण-सार

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं.......कामः क्रोधः तथा लोभः ।

काम-क्रोध-लोभ, ये नरक के तीन दरवाजे हैं। गीता ने उनका निषेध किया है। भागवत कहती है कि काम-क्रोध-लोभ से मुक्ति पाना चारों वर्णों का कर्तव्य है, सब मनुष्यों का कर्तव्य है। इससे भी बड़ी बात और बता रहे हैं : भूतप्रिय-हितेहा –सब प्राणियों का प्रिय करना, सब प्राणियों के हित की बात करना, सेवा करना। आधुनिक भाषा में कहना हो तो ‘सर्वोदय’ का काम करना। इसकी जिम्मेवारी चारों वर्णों पर है –धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः। आजकल जिसे हम ‘समाज-सेवा’ कहते हैं, वह सब इसमें आ जाती हैं। इसमें व्यापक दृष्टि है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय – ये तीन व्यक्ति और समाज के लिए बुनियादी चीजें हैं। अकाम-क्रोध-लोभता चित्त-शुद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक है। काम-क्रोध-लोभ से मुक्ति पाये बिना चित्त-शुद्धि नहीं और चित्त-शुद्धि के बिना समाज-सेवा भी संभव नहीं।मुख्य बात यह है कि हम सबको समाज की सेवा करनी है। यानी उस-उस वर्ण के जो काम हैं, उनके अलावा सब भूतों का प्रिय करना और सब भूतों के हित की इच्छा करना भी सर्वसाधारण का धर्म है। मान लीजिये, यहाँ जोरदार आग लग गयी। आग बुझाना यहाँ को नगरपालिका का विशेष कर्तव्य है। लेकिन नागरिकों का भी कर्तव्य है कि वे आग बुझाने की कोशिश करें। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी नागरिक उसके लिए कोशिश करें। मतलब यह कि यद्यपि वर्णों के काम बँटे हुए हैं, फिर भी सर्वोदय और लोगों की सेवा के ऐसे असंख्य काम रह जाते हैं, जिनके करने की जिम्मेवारी हरएक वर्ण पर है। नगर में कहीं दंगा हो रहा है, तो पुलिस या सेना का कर्तव्य है कि उसे काबू में रखे। इन लोगों को हम ‘क्षत्रिय’ नाम दे सकते हैं। दंगा बुझाने का काम उनका है, यह मानी हुई बात है। लेकिन उस समय हमारा भी कुछ कर्तव्य होता है। हमारा कर्तव्य है कि तत्काल वहाँ चले जाएँ और लोगों को समझाने का प्रयत्न करें। शान्ति-सेना का पीला साफा बाँधने की भी आवश्यकता नहीं। पीला साफा पहनना तो एक व्रत है कि हम ऐसे दंगों में अपना बलिदान भी देंगे। लेकिन सामान्य नागरिक का कर्तव्य है कि वह दंगा मिटाने की कोशिश करे। यह समाज-सेवा की, मानवता की दृष्टि है। माना जाता है कि प्राचीनों ने आध्यात्मिक साधना के लिए सत्य, अहिंसादि व्रत कहे और महात्मा गांधी ने उन्हें समाज-सेवा के लिए लागू किया। यह सत्य है –आधुनिक जमाने में कुछ हद तक यह सत्य है, लेकिन पूर्ण सत्य नहीं। भागवत में यह बात कही गयी है। महात्मा गांधी ने हमारे सामने बिलकुल नयी चीज रखी, सो नहीं। फिर भी हम उसे भूल रहे थे। इसिए हमें लगा कि वह नयी चीज है। गांधीजी ने कभी दावा नहीं किया कि मैं नयी चीज लोगों के सामने रख रहा हूँ। उल्टा वे कहते कि ‘हमारे’ऋषि-मुनियों ने जो बात कही थी, उसके अमल में अपनी ताकत लगा रहा हूँ और वही चीज लोगों के सामने रख रहा हूँ। चारों वर्णों के समान धर्म बताये। अब चारों आश्रमों के समान धर्म बता रहे हैं। एक आश्रम है ब्रह्मचर्य। ‘ब्रह्मचर्य’ यानी विद्यार्थी का आश्रम, विद्याध्ययन करना। आजकल विद्यार्थी दंगे आदि में अधिक रुचि लेते हैं। राजनीतिक पार्टीवाले उनका सहारा लेते और दंगे आदि में विद्यार्थियों का मुख्य हाथ हो जाता है। न माता-पिता उनको रोकते हैं, न गुरुजी और न राज्य ही उन्हें रोक पाता है। आज ऐसी हालत सारी दुनिया में है, केवल अपने देश में नहीं। लेकिन यह विद्यार्थियों का कर्तव्य नहीं। विद्यार्थियों का कर्तव्य है – ब्रह्मचर्य का पालन, गुरु की सेवा, वेदाध्ययन, धर्मगंर्थों का अध्ययन, विज्ञान का अध्ययन। फिर गृहस्थधर्म है, जिसे हम ‘नागरिक का धर्म’ कहते हैं। सारा कर्तव्य गृहस्थों को करना है। उत्पादन बढ़ाना गृहस्थों का काम है। फिर वानप्रस्थाश्रम है। वानप्रस्थाश्रममें सारे समाज को मार्गदर्शन देना, तालीम का इंतजाम करना, यह कर्तव्य है। वानप्रस्थाश्रम के बाद है – संन्यासाश्रम। संन्यासी तो आत्मज्ञानी है। संन्यासी समाज को आत्मज्ञान दे, भक्ति का मार्ग बताये। यह सारा काम संन्यासियों का है। लेकिन इन चारों आश्रमों के लिए कोई एक समान तत्व है या नहीं? भागवतकार बता रहे हैं :


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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