महाभारत आदि पर्व अध्याय 121 श्लोक 16-21
एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
महाराज ! उन महायशस्वीत महर्षि ने जो विद्या मुझे दी थी, उसके द्वारा आवाहन करने पर कोई भी देवता आकर देवोपम पुत्र प्रदान करेगा, जो आपके संतानहीनता जनित शोक को दूर कर देगा; इस प्रकार मुझे संतान प्राप्त होगी और आपकी पुत्र कामना सफल हो जायगी । ‘सत्यनवानों में श्रेष्ठ नरेश ! बताइये, मैं किस देवता का आवाहन करूं। आप समझ लें, मैं (आप के संतोषार्थ) इस कार्य के लिये तैयार हूं। केवल आप से आज्ञा मिलने की प्रतीक्षा में हूं । पाण्डु बोले- प्रिये ! मैं धन्या हूं, तुमने मुझ पर महान् अनुग्रह किया। तुम्हीं मेरे कुल को धारण करने वाली हो। उन महर्षि को नमस्का।र है, जिन्होंनने तुम्हेंक वैसा वर दिया। धर्मज्ञे ! अधर्म से प्रजा का पालन नहीं हो सकता। इसलिये वरारोहे ! तुम आज ही विधिपूर्वक इसके लिये प्रयत्न करो। शुभे ! सबसे पहले धर्म का आवाहन करो, क्योंोकि वे ही सम्पूरर्ण लोकों में धर्मात्माक हैं । (इस प्रकार करने पर) हमारा धर्म कभी किसी तरह अधर्म से संयुक्त नहीं हो सकता। बरारोहे ! लोक भी उनको साक्षात् धर्म का स्व रुप मानता है। धर्म से उत्पकन्न होने वाला पुत्र कुरूवंशियों में सबसे अधिक धर्मात्मा होगा- इसमें संशय नहीं है। धर्म के द्वारा दिया हुआ जो पुत्र होगा, उसका मन अधर्म में नहीं लगेगा। अत: शुचिस्मिते तुम मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर धर्म को भी सामने रखते हुए उपचार (पूजा) और अभिचार (प्रयोग विधि) के द्वारा धर्म देवता का आवाहन करो । वैशम्पानयनजी कहते हैं- राजन् ! अपने पति पाण्डुऔ के यों कहने पर नारियों में श्रेष्ठ कुन्तीव ने ‘तथास्तुए’ कहकर उन्हें प्रणाम किया और आज्ञा लेकर उनकी परिक्रमा की ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
टीका टिप्पणी और संदर्भ