महाभारत वन पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-16

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:२८, १३ अगस्त २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वात्रिंश (32) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

द्रौपदी का पुरूषार्थ को प्रधान मानकर पुरूषार्थ करने के लिये जोर देना

द्रौपदी बोली- कुन्तीनन्दन ! मैं धर्म की अवहेलना तथा निंदा किसी प्रकार नहीं कर सकती। फिर समस्त प्रजाओं का पालन करने वाले परमेश्वर की अवहेलना तो कर ही कैसे सकती हूं। भारत ! आप ऐसा समझ लें कि मैं शोक से आर्त होकर प्रलाप कर रही हूं। मैं इतने से ही चुप नहीं रहुंगी और भी विलाप करूंगी। आप प्रसन्नचित्त होकर मेरी बात सुनिये। शत्रुनाशन ! ज्ञानी पुरूष को भी इस संसार में कर्म अवश्य करना चाहिये। पर्वत और वृक्ष आदि स्थावर भूत ही बिना कर्म किये जी सकते हैं, दूसरे लोग नहीं। महाराजा युधिष्ठिर ! गौओं के बछड़े भी माता दूध पीते और छाया में जाकर विश्राम करते हैं। इस प्रकार सभी जीव कर्म करके जीवन निर्वाह करते है। भरतश्रेष्ठ ! जंगम जीवों में विशेषरूप से मनुष्य कर्म के द्वारा ही इहलोक और परलोक में जीविका प्राप्त करना चाहते हैं। भारत ! सभी प्राणी अपने उत्थान को समझते हैं और कर्मों के प्रत्यक्ष फल का उपभोग करते हैं, जिसका साक्षी सारा जगत् है। यह जल के समीप जो बगुला बैठकर (मछली के लिये) ध्यान लगा रहा है, उसी के समान ये सभी प्राणी अपने उद्योग का आश्रय लेकर जीवन धारण करते हैं। धाता और विधाता भी सदा सृष्टिपालन के उद्योग में लगे रहते हैं। कर्म न करनेवाले प्राणियों की कोई जीविका भी सिद्ध नहीं होती। अतः (प्रारब्ध का भरोसा करके) सभी कर्म का परित्याग न करे। सदा कर्म का ही आश्रय ले। अतः आप अपना कर्म करें। उसमें ग्लानि न करे; कर्म का कवच पहने रहें। जो कर्म करना अच्छी तरह जानता है, ऐसा मनुष्य हजारों में एक ही है, या नहीं ? यह बताना कठिन है। ही है। परन्तु जो आलसी है, जिसके ठीक-ठीक कर्तव्य का पालन नहीं हो पाता, उसे कभी फल की सिद्धि नहीं प्राप्त होती। यदि समस्त प्रजा इस भूतलपर कर्म करना छोड़ दे तो सबका संहार हो जाय। यदि कर्म का कुछ फल न हो तो इन प्रजाओं की वद्धि ही न हो। हम देखते हैं कि लोग व्यर्थ कर्म में लगे रहते हैं, कर्म न करने पर तो लोगों की किसी प्रकार जीविका ही नहीं चल सकती। संसार में जो केवल भाग्य के भरोसे कर्म नहीं करता अर्थात् जो ऐसा मानता है कि पहले जैसा किया है वैसा ही फल अपने आप ही प्राप्त होगा तथा जो हठवादी है- बिना किसी युक्ति के हठपूर्वक यह मानना है कि कर्म करना अनावश्यक है, जो कुछ मिलना होगा, अपने आप मिल जायेगा, वे दोनों ही मूर्ख हैं। जिसकी बुद्धि कर्म (पुरूषार्थ) में रूचि रखती है, वही प्रशंसापात्र है। जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य प्रारब्ध (भाग्य) का भरोसा रखकर उद्योग से मुंह मोड़ लेता है और सुख से सोता रहता है, उसका जल में रखे हुए कच्चे घड़े की भांति विनाश हो जाता है। इसी प्रकार जो हठी और दुर्बुद्धि मानव कर्म करने में समर्थ होकर भी कर्म नहीं करता, बैठा रहता है, वह दुर्बल एवं अनाथ की भांति दीर्धजीवी नहीं होता। जो कोई मनुष्य इस जगत में अकस्मात् कहीं से धन पा लेता है, उसे लोग हठ से मिला हुआ मान लेते हैं; क्योंकि उसके लिये किसी के द्वारा प्रयत्न किया हुआ नहीं दीखता।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।