महाभारत आदि पर्व अध्याय 123 श्लोक 1-14

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त्रयोविंशत्याधिकशततम (123) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रयोविंशत्याधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

नकुल और सहदेव की उत्पधत्ति तथा पाण्डुप-पुत्रों के नामकरण-संस्कापर वैशम्पा यनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब कुन्तीो के तीन पुत्र उत्प‍न्न हो गये और धृतराष्ट्र के भी सौ पुत्र हो गये, तब माद्री ने पाण्डुज से एकान्त में कहा- । शत्रुओं को संताप देने वाले निष्पागप कुरुनन्द न ! आप संतान उत्पहन्न करने की शक्ति से रहित हो गये, आपकी इस न्यूंनता या दुर्बलता को लेकर मेरे मन में काई संताप नहीं है। यद्यपि मैं सदा कुन्तीे देवी की अपेक्षा श्रेष्ठ होने के कारण पटरानी के पद पर बैठने की अधिकारिणी थी, तो भी जो सदा मुझे छोटी बनकर रहना पड़ता है, इसके लिये भी मुझे कोई दु:ख नहीं है। राजन ! गान्धा री तथा राजा धृतराष्ट्र के जो सौ पुत्र हुए हैं, वह समाचार सुनकर भी मुझे वैसा दु:ख नहीं हुआ था । परंतु इस बात का मेरे मन में बहुत दु:ख है कि मैं और कुन्तीा देवी दोनों समान रूप से आपकी पत्नियां हैं, तो भी उन्हें तो पुत्र हुआ और मैं संतानहीन ही रह गयी। यह सौभाग्यै की बात है कि इस समय मेरे प्राणनाथ को कुन्ती् के गर्भ से पुत्र की प्राप्ति हो गयी है । यदि कुन्ति राजकुमारी मेरे गर्भ से भी कोई संतान उत्पन्न करा सकें, तो यह उनका मेरे ऊपर महान् अनुग्रह होगा और इससे आपका भी हित हो सकता है । सौत होने के कारण मेरे मन में एक अभिमान है, जो कुन्तीग देवी से कुछ निवेदन करने में बाधक हो रहा है; अत: यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो आप स्वायं ही मेरे लिये कुन्तीे देवी को प्रेरित कीजिये । पाण्डुत बोले- माद्री ! यह बात मेरे मन में भी निरन्तंर घूमती रहती है, किंतु इस विषय में तुमसे कुछ कहने का साहस नहीं होता था; क्योंीकि पता नहीं, तुम यह प्रस्ता व सुनकर प्रसन्न होओगी या बुरा मान जाओगी। यह संदेह बराबर बना रहता था । परंतु आज इस विषय में तुम्हाआरी सम्मसत्ति जानकर अब मैं इसके लिये प्रयत्नर करूंगा। मुझे विश्वा स है, मेरे कहने पर कुन्तीह देवी निश्चय ही मेरी बात मान लेंगी । वैशम्पा यनजी कहते हैं- जनमेजय ! तब राजा पाण्डु ने एकान्ते में कुन्तीे से यह बात कही- कल्याेणि ! मेरी कुल-परम्पैरा का विच्छेयद न हो और सम्पूार्ण जगत् का प्रिय हो, ऐसा कार्य करो। मेरे तथा अपने पूर्वजों के लिये पिण्डय का अभाव न हो और मेरा भी प्रिय हो, इसके लिये तुम परम उत्तम कल्य णमय कार्य करो । अपने यश का विस्ताीर करने के लिये तुम अत्य न्त् दुष्क्र कर्म करो, जैसे इन्द्रर ने स्वयर्ग का साम्राज्ये प्राप्त कर लेने के बाद भी केवल यश की कामना से अनेका-नेक यज्ञों का अनुष्ठान किया था । भामिनी ! मन्त्रकवेत्ता ब्राह्मण अत्यकन्ता कठोर तपस्या करके भी यश के लिये गुरुजनों की शरण ग्रहण करते हैं । सम्पूयर्ण राजर्षियों तथा तपस्वीअ ब्राह्मणों ने भी यश के लिये छोटे-बड़े कठिन कर्म किये हैं । अनिन्दथते ! इसी प्रकार तुम भी इस माद्री को नौका पर बिठाकर पार लगा दो; इसे भी संतति देकर उत्तम यश प्राप्त करो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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