महाभारत वन पर्व अध्याय 37 श्लोक 40-59

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सप्तत्रिंश (37) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद

महामना अर्जुन योगयुक्त होने के कारण मन के समान तीव्र वेग से चलने में समर्थ हो गये थे, अतः वे वायु के समान एक ही दिन में उस पुण्य पर्वत पर पहुंच गये। हिमालय और गन्धमादन पर्वत को लांघकर उन्होंने आलस्यरहित दो दिन-रात चलते हुए और भी बहुत से दुर्गम स्थानों को पार किया। तदनन्तर इन्द्रकील पर्वत पर पहुंचकर अर्जुन ने आकाश में उच्च स्वर में गूंजती हुई एक वाणी सुनी-तिष्ठ (यहीं ठहर जाओ) ।’ तब वे वहीं ठहर गये। वह वाणी सुनकर पाण्डवनन्दन अर्जुन ने चारों और दृष्टिपात किया। इतने ही में उन्हें वृक्ष के मूलभाग में बैठे हुए एक तपस्वी महात्मा दिखायी दिये। वे अपने ब्रह्मतेज से उद्भासित हो रहे थे। उनकी अंगकांति पिंगलवर्ण की थी। सिरपर जटा बढ़ी हुई थी और शरीर अत्यन्त कृश था। उन महातपस्वी ने अर्जुन को वहां खडे़ हुए देखकर पूछा- ‘तात ! तुम कौन हो ? जो धनुष-बाण, कवच तलवार तथा दस्ताने से सुसज्जित हो क्षत्रियधर्म का अनुगमन करते हुए यहां आये हो। यहां अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता नहीं है। यह तो क्रोध और हर्ष को जीते हुए तपस्या में तत्पर शांत ब्रह्मणों का स्थान है। ‘यहां कभी कोई युद्ध नहीं होता, इसीलिये यहां तुम्हारे धनुष का कोई काम नहीं है। तात ! यह धनुष यहीं फेंक दो, अब तुम उत्तम गति को प्राप्त हो चुके हो। ‘वीर ! ओज और तेज में तुम्हारे-जैसा दूसरा कोई पुरूष नहीं है !’ इस प्रकार उन ब्रह्मषिने हंसते हुए से बार-बार अर्जुन के धनुष को त्याग देने की बात कही। परन्तु अर्जुन धनुष न त्यागने का दृढ़ निश्चय कर चुके थे; अतः ब्रह्मर्षि उन्हें धैर्य से विचलित नहीं कर सके। तब उन ब्राह्मण देवताने पुनः प्रसन्न होकर उनसे हंसते हुए से कहा-‘शत्रुसूदन ! तुम्हारा भला हो, मैं साक्षात् इन्द्र हूं, मुझसे कोई वर मांगो’। यह सुनकर कुरूकुलरत्न शूर-वीर अर्जुन ने सहस्त्र नेत्रधारी इन्द्र से हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक कहा-‘भगवान् ! मैं आपसे सम्पूर्ण अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं, यही मेरा अभीष्ट मनोरथ है; अतः मुझे यही वर दीजिये’। तब महेन्द्र ने प्रसन्नचित्त हो हंसते हुए से कहा-‘धनंजय ! जब तुम यहां तक आ पहुंचे, तब तुम्हें अस्त्रों को लेकर क्या करना है ? अब इच्छानुसार उत्तम लोक मांग लो; क्योंकि तुम्हें उत्तम गति प्राप्त हुई है।’ यह सुनकर धनंजय ने पुनः देवराज से कहा-‘देवेश्वर ! मैं अपने भाईयों को वन में छोड़कर (शत्रुओं से) वैर का बदला लिये बिना लोभ अथवा कामना के वशीभूत हो न तो देवत्व चाहता हूं, न सुख और न सम्पूर्ण देवताओं का ऐश्वर्य प्राप्त कर लेने की मेरी इच्छा है। यदि मैंने वैसा किया तो सदा के लिये सम्पूर्ण लोकों में मुझे महान् अपयश प्राप्त होगा’। अर्जुन के ऐसा कहने पर विश्ववन्दित, वृत्रविनाशक इन्द्र ने मधुर वाणी में अर्जुन को सान्त्वना देते हुए कहा-‘तात ! तब तुम्हें तीन नेत्रों से विभूषित त्रिशूलधारी भूतनाथ भगवान् शिव का दर्शन होगा, तब मैं तुम्हें सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रदान करूंगा। ‘कुन्तीकुमार ! तुम उन परमेश्वर महादेवजी का दर्शन पाने के लिये प्रयत्न करो। उनके दर्शन से पूर्णतः सिद्ध हो जाने पर तुम स्वर्गलोक में पधारोगे’। अर्जुन से ऐसा कहकर इन्द्र पुनः अदृश्य हो गये। तत्पश्चात् अर्जुन योगयुक्त हुए वहीं रहने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में इन्द्रदर्शन विषयक सैतीसवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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