महाभारत वन पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-18

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अष्टचत्वारिश (48) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्टचत्वारिश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

दुःखित धृतराष्ट्र का संजय के सम्मुख अपने पुत्रों के लिये चिंता करना

जनमेजय ने पूछा-ब्रह्मन् ! अमित तेजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन का यह कर्म तो अत्यन्त अद्भुत है। परम बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्र ने भी यह अवश्य सुना होगा। उसे सुनकर उन्होंने क्या कहा था ? यह बतलाइये। वैशम्पायनजी ने कहा-जनमेजय ! अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने ऋषि द्वैपायन व्यास के मुख से अर्जुन के इन्द्रलोकगमन का समाचार सुनकर संजय से यह बात कही। धृतराष्ट्र बोले-सूत! मैंने परम बुद्धिमान् कुन्ती कुमार अर्जुन का सारा वृत्तान्त सुना है। सारथे ! क्या तुम्हें भी इस विषय में यथार्थ बातें ज्ञात हुई हैं ? मेरा मूढ़बुद्धि पुत्र तो विषयभोगों में फंसा हुआ है। उसका विचार सदा पापपूर्ण ही बना रहता है। प्रमाद में पड़ा हुआ वह अत्यन्त दुर्बुधि दुर्योधन एक दिन सारे भूमण्डलका नाश करा देगा। जिन महात्मा के मुख से हंसी में भी सदा सत्य ही बातें निकलती हैं और जिन की ओर से लड़नेवाले धनंजय जैसे योद्धा हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिर के लिये इस कौरव-राज्य को जीतने की तो बात ही क्या है, वे तीनों लोकों पर अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। जो पत्थर पर रगड़कर तेज किये गये हैं, जिनके अग्रभाग बडे़ तीखे हैं, उन कर्णिनामक नाराचांे का प्रहार करनेवाले अर्जुन के आगे कौन योद्धा ठहर सकता है ? जराविजयी मृत्यु भी उनका सामना नहीं कर सकती। मेरे सभी दुरात्मा पुत्र मृत्यु के वश में हो गये हैं, क्योंकि उनके सामने दुर्धर्ष वीर पाण्डवों के साथ युद्ध करने का अवसर उपस्थित हुआ है। मैं दिन रात विचार करने में भी यह नहीं समझ पाया कि युद्ध में ‘गाण्डीवधन्वा’ अर्जुन का सामना कौन रथी कर सकता हैं ? द्रोण और कर्ण उस अर्जुन का सामना कर सकते हैं। भीष्म भी युद्ध में उससे लोहा ले सकते हैं; परन्तु तो भी मेरे मन में महान् संशय ही बना हुआ है। मुझे इस लोक में अपने पक्ष की जीत नहीं दिखायी देती। कर्ण दयालु और प्रमादी है। आचार्य द्रोण वद्ध एवं गुरू हैं। इधर कुन्तीकुमार अर्जुन अत्यन्त अमर्ष में भरे हुए और बलवान् हैं। उद्योगी और दृढ़ पराक्रमी हैं। सब ओर से घमासान युद्ध छिड़ने की सम्भावना हो गयी है। युद्ध में पाण्डवों की पराजय नहीं हो सकती; क्योंकि उनकी ओर सभी अस्त्रविद्या के विद्वान् शूरवीर और महान् यशस्वी हैं। और वे पराजित न होकर सवेश्वर सम्राट् बनने की इच्छा रखते हैं। इन कर्ण आदि योद्धाओं का वध हो जाय अथवा अर्जुन ही मारे जायं तो इस विवाद की शांति हो सकती है। परन्तु अर्जुन को मारनेवाला या जीतनेवाला कोई नहीं है। मेरे मन्दबुद्धि पुत्रों के प्रति उनका बढ़ा हुआ क्रोध कैसे शांत हो सकता है ? अर्जुन इन्द्र के समान वीर हैं। उन्होंने खाण्डव वन में अग्नि को तृत्प किया तथा राजसूर्य महायज्ञ में समस्त राजाओं पर विजय पायी। संजय ! पर्वत के शिखर पर गिरनेवाला वज्र भले ही कुछ बाकी छोड़ दे; किंतु तात ! किरीटधारी अर्जुन के चलाये हुए बाण कुछ भी शेष नहीं छोड़ेंगे। जैसे सूर्य की किरणें चराचर जगत् को संतप्त करती हैं, उसी प्रकार अर्जुन की भुजाओंद्वारा चलाये गये बाण मेरे पुत्रों को संतप्त कर देंगे। मुझे तो आज भी सव्यसाची अर्जुन ने रथकी घर घराहट से सारी कौरव-सेना भयातुर हो छिन्न-भिन्न सी होती प्रतीत हो रही है। जब किरीटधारी अर्जुन हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये (तूणीर से) बाण निकालते और चलाते हुए समरभूमि में खडे़ होंगे, उस समय उनसे पार पाना असम्भव हो जायगा। वे ऐसे जान पड़ेंगे, मानों विधाता ने किसी दूसरे सर्वसंहारकारी यमराज की सृष्टि कर दी हो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकभिगमनपर्व में धृतराष्ट्र विलापविषयक अड़तालीसवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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