महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 238 श्लोक 14-21
अष्टात्रिंशदधिकद्विशततम (238) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सत्ययुग और त्रेता में वेद,यज्ञ तथा वर्णाश्रम धर्म विशुद्ध रूप में पालित होते हैं, परंतु द्वापरयुग में लोगों की आयु का ह्रास होने के कारण ये भी क्षीण होने लगते हैं । द्वापर और कलियुग में वेद प्राय: लुप्त हो जाते है । कलियुग के अन्तिम भाग में तो वे कभी कहीं दिखायी देते हैं और कभी दिखायी भी नहीं देते हैं । उस समय अधर्म से पीडि़त हो सभी वर्णों के स्वधर्म नष्ट हो जाते हैं । गौ, जल, भूमि और औषधियो के रस भी नष्टप्राय हो जाते हैं । वेद, वैदिक धर्म तथा स्वधर्मपरायण आश्रम – ये सभी उस समय अधर्म से आच्छादित हो अदृश्य हो जाते हैं और स्थावर जंगम सभी प्राणी अपने धर्म से विकृत हो जाते हैं; अर्थात् सबमें विकार उत्पन्न हो जाता है । जैसे वर्षा भूतल के समस्त प्राणियों को उत्पन्न करती है और सर्व ओर से उनके अंगों को पुष्ट करती हैं, उसी प्रकार वेद प्रत्येक युग में समपूर्ण योगागों का पोषण करते हैं । इसी प्रकार निश्चय ही काल के भी अनेक रूप हैं । उसका न आदि है और न अन्त। वही प्रजा की सृष्टि करता हैं और अन्त में वही सबको अपना ग्रास बना लेता है । यह बात मैंने तुमको पहले ही बता दी हैं । यह जो काल नामक तत्व है, वही प्राणियों की उत्पत्ति, पालन, संहार और नियन्त्रण करने वाला है । उसी में द्वन्द्वयुक्त असंख्य प्राणी स्वभाव से ही निवास करते हैं । तात ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार मैंने तुम्हारे समक्ष सर्ग, काल, धारणा, वेद, कर्ता, कार्य और क्रियाफल के विषय में ये सब बातें कहीं हैं ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुक देव का अनुप्रश्नविषयक दो सौ अठतीसवॉ अध्याय पूरा हुआ ।।२३८।।
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