महाभारत वन पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-19

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एकषष्टितम (61) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

नल का जूए में हाकर दमयन्ती के साथ वन को जाना और पक्षियों द्वारा आपद्भस्‍त नल के वस्त्र का अपहरण

बृहदश्व मुनि कहते हैं-युधिष्ठिर ! तदनन्तर वार्ष्‍णेय के चले जाने पर जूआ खेलनेवाले पुण्यश्लोक महाराज नल के सारे राज्य और जो कुछ धन था, उन सबका जूए में पुष्कर ने अपहरण कर लिया। राजन् ! राज्य हार जाने पर नल से पुष्कर ने हंसते हुए कहा कि ‘क्या फिर जूआ आरम्भ हो ? अब तुम्हारे पास दांवपर लगाने के लिये क्या है ? ‘तुम्हारे पास केवल दमयन्ती शेष रह गयी है और सब वस्तुएं तो मैंने जीत ली हैं, यदि तुम्हारी राय हो तो दमयन्ती को दांवपर रखकर एक बार फिर जूआ खेला जाय’। पुष्कर के ऐसा कहने पर पुण्यश्लोक महाराज नल का हृदय शोक से विदीर्ण-सा हो गया, परन्तु उन्होंने उससे कुछ कहा नहीं। तदनन्तर ! महायशस्वी नल ने अत्यन्त दुःखित हो पुष्कर की ओर देखकर अपने सब अंगों के आभुषण उतार दिये और केवल एक अधोवस्त्र धारण करके चादर ओढ़े बिना ही अपनी विशाल सम्पति को त्यागकर सुहृदों का शोक बढ़ाते हुए वे राजभवन से निकल पडे़। दमयन्तजी के शरीर पर भी एक ही वस्त्र था। वह जाते हुए राजा नल के पीछे हो ली। वे उसके साथ नगर से बाहर तीन-रात तक टिके रहे। महाराज! पुष्कर ने उस नगर में यह घोषण करा दी-डुग्गी पिटवा दी कि ‘जो नल के साथ अच्छा बर्ताव करेगा, वह मेरा वध्य होगा’। युधिष्ठिर ! पुष्कर उस वचन से और नल के प्रति पुष्कर का द्वेष होने से पुरवासियों के राजा नल का कोई सत्कार नहीं किया। इस प्रकार राजा नल अपने नगर के समीप तीन रात तक केवल जलमात्र का आहार करके टिके रहे। वे सर्वथा सत्कार के योग्य थे तो भी उनका सत्कार नहीं किया गया। वहां भूख से पीडि़त हो फल-मूल आदि जुटाते हुए राजा नल वहां से अन्यत्र चले गये। केवल दमयन्ती उनके पीछे-पीछे गयी। इसी प्रकार नल बहुत दिनों तक क्षुधा से पीडि़त रहे। एक दिन उन्होंने कुछ ऐसे पखी देखे, जिनकी पांखें सोने की थीं। उन्हें देखकर (क्षधातुर और आपत्तिगस्त होने के कारण) बलवान् निषध-नरेश के मन में यह बात आयी कि ‘यह पक्षियों का समुदाय ही आज मेरा भक्ष्य हो सकता है और इनकी ये पांखें मेरे लिये धन हो जायंगी’। तदनन्तर उन्होंने अपने अधोवस्त्र से उन पक्षियों को ढंक दिया। किंतु वे सब पक्षी उनका वह वस्त्र लेकर आकाश में उड़ गये। उड़ते हुए उन पक्षियों ने राजा नल को दीनभाव से नीचे मुंह किये धरतीपर नग्न खड़ा देख उनसे कहा- ‘ओ खोटी बुद्धिवाले नरेश ! हम (पक्षी नहीं) पासे हैं और तुम्हारा अस्त्र अपहरण करने की इच्छा से ही यहां आये थे। तुम वस्त्र पहने हुए ही वहां से चले आये थे, इससे हमें प्रसन्नता नहीं हुई थी’। राजन् ! उन पासों को नजदीक से जाते देख और अपने आपको नग्नावस्था में पाकर पुण्यश्लोक नल ने उस समय दमयन्ती से कहा-‘सती साध्वी रानी ! जिसके क्रोध से मेरा ऐश्वर्य छिन गया, मैं क्षुरापीडि़त एवं दुःखित होकर जीवन निवार्ह के लिये अन्न तक नहीं पा रहा हूं और जिनके कारण निषध देश की प्रजा ने मेरा सत्कार नहीं किया, भीरू ! वे ही ये पासे हैं, जो पक्षी होकर मेरा वस्त्र लिये जा रहे हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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