महाभारत वन पर्व अध्याय 61 श्लोक 20-36

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Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:३५, १४ अगस्त २०१५ का अवतरण
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एकषष्टितम (61) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकषष्टितम अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद

‘मैं बड़ी विषम परिस्थिति में पड़ गया हूं। दुःख के मारे मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही है। मैं तुम्हारा पति हूं, अतः तुम्हारे हित की बात बता रहा हूं, इसे सुनो- ‘ये बहुत से मार्ग हैं, जो दक्षिण दिशा की ओर जाते हैं। यह मार्ग ऋक्षवान् पर्वत को लांघकर अवन्तीदेश को जाता है। ‘यह महान् पर्वत विन्ध्य दिखायी दे रहा है और यह समुद्रगामिनी पयोष्णी नदी है। यहां महर्षियों के बहुत-से आश्रम हैं, जहां प्रचुर मात्रा में फल-मूल उपलब्ध हो सकते हैं। यह विर्दभ देश का मार्ग है और वह कोसल देश को जाता है। दक्षिण दिशा में इसके बाद का देश दक्षिणापथ बहलाता हैं। भारत ! राजानल ने एकाग्रचित होकर बड़ी आतुरता के साथ दमयन्ती से उपर्युक्त बातें बार-बार कहीं। तब दमयन्ती अत्यन्त दुःख से दुर्बल हो नेत्रों से आंसू बहाती हुई गद्रद वाणी में राजा नल से यह करूण वचन बोली। ‘महाराज ! आपका मानसिक संकल्प क्या हैं, इसपर जब मैं बार-बार विचार करती हूं तब मेरा हृदय उद्विग हो उठता है और सारे अंग शिथिल हो उठते हैं। आपका राज्य छिन गया। धन नष्ट हो गया। आपके शरीर पर वस्त्र तक नहीं रह गया तथा भूख और परिश्रम से कष्ट पा रहे हैं। ऐसी अवस्था में इस निर्जन वन में आपको असहाय छोड़कर मैं कैसे जा सकती हूं ? ‘महाराज ! जब आप भंयकर वन में थके-मांदे भूख से पीडि़त हो अपने पूर्व सुख का चिन्तन करते हुए अत्यन्त दुखी होने लगंेगे, उस समय मैं सान्त्वना द्वारा आपका संताप का निवारण करूंगी। ‘चिकित्सकों का मत है कि समस्त दुःखों की शांति के लिये पत्नी के समान दूसरी कोई औषध नहीं है; यह मैं आपसे सत्य कहती हूं। नल ने कहा-सुमध्यमा दमयन्ती ! तुम जैसा कहती हो वह ठीक है। दुखी मनुष्य के लिये पत्नी के समान दूसरा कोई मित्र या औषध नहीं है। भीरू ! मैं तुम्हें त्यागना नहीं चाहता, तुम इतनी अधिक शंका क्यों करती हो ? अनिन्दिते ! मैं अपने शरीर का त्याग कर सकता हूं, पर तुम्हें नहीं छोड़ सकता। दमयन्ती ने कहा-महाराज ! यदि आप मुझे त्यागना नहीं चाहते तो विदर्भदेश का मार्ग क्यों बता रहे हैं ? राजन् मैं जानती हूं कि आज स्वयं मुझे नहीं त्याग सकते, परन्तु महीपते ! इस घोर आपत्ति ने आपके चित्त को आकर्षित कर लिया है, इस कारण आप मेरा त्याग भी कर सकते हैं। नरश्रेष्ठ ! आप बार-बार जो मुझे विदर्भदेश का मार्ग बता रहे हैं। देवोपम आर्यपुत्र ! इसके कारण आप मेरा शोक भी बढ़ा रहे हैं। यदि आपका यह अभिप्राय हो कि दमयन्ती अपने बन्धु-बान्धवों के यहां चली जाय तो आपकी सम्मति हो तो हम दोनों साथ ही विदर्भदेश को चलें। मानद ! वहां विदर्भनरेश आपका पूरा आदर-सत्कार करेंगे। राजन् ! उनसे पूजित होकर आप हमारे घर में सुख पूर्वक निवास कीजियेगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व नल की वनयात्रा-विषयक इकसठवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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