महाभारत वन पर्व अध्याय 62 श्लोक 1-18

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द्विषष्टितम (62) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

राजा नल की चिंता और दमयन्ती को अकेली सोती छोड़कर उनका अन्यत्र प्रस्थान

नल ने कहा-प्रिये ! इसमें संदेह नहीं कि विदर्भराज्य जैसे तुम्हारे पिता का है, वैसे मेरा भी है, तथापि आपत्ति में पड़ा हुआ मैं किसी तरह वहां नहीं जाऊंगा। एक दिन मैं भी समृद्धिशाली राजा था। उस अवस्था में वहां जाकर मैंने तुम्हारे हर्ष को बढ़ाया और आज उस राज्य से वंचित होकर केवल तुम्हारे शोक की वृद्धि कर रहा हूं, ऐसी दशा में वहां कैसे जाऊंगा ? बृहदश्व मुनि कहते हैं-राजन् ! आधे वस्त्र से ढकी हुई कल्याण मयी दमयन्ती से बार बार ऐसा कहकर राजा नल ने उसे सान्तवना दी; क्योंकि वे दोनों एक ही वस्त्र से अपने अंगों को ढक्कर इधर-उधर धूम रहे थे। भूख और प्यास से थके-मांदे वे दोनों दम्पति किसी सभाभवन (धर्मशाला) में जा पहुंचे। तब उस धर्मशाला में पहुंचकर निषधनरेश राजा नल वैदभीं के साथ भूतलपर बैठे। वे वस्त्रहीन, चटाई आदि से रहित, मलिन एवं धूलिधूसरित हो रहे थे। दमयन्ती के साथ थककर भूमि पर सौ गये। सुकुमारी तपस्विनी कल्याणमयी दमयन्ती भी सहसा दुःख में पड़ गयी थी। वहां आनेपर उसे भी निंद्रा ने घेर लिया। राजन् ! राजा नल का चित्त शोक से मथा जा रहा था। वे दमयन्ती के सो जाने पर भी स्वयं पहले की भांति सो न सके। राज्य अपहरण, सुहृदों का त्याग और वन में प्राप्त होनेवाले नाना प्रकार के क्लेश पर विचार करते हुए वे चिन्ता को प्राप्त हो गये। वे सोचने लगे ‘ऐसा करने से मेरा क्या होगा और यह कार्य न करने से भी क्या होगा। मेरा मर जाना अच्छा है कि अपनी आम्तीया दमयन्ती को त्याग देना। वे सोचने लगे ‘ऐसा करने से मेरा क्या होगा और यह कार्य न करने से भी क्या होगा। मेरा मर जाना अच्छा है कि अपनी आत्मीया दमयन्ती को त्याग देना। ‘यह मुझसे इस प्रकार अनुरक्त होकर मेरे ही लिये दुःख उठा रही है। यदि मुझसे अलग हो जाय तो यह कदाचित् अपने स्वजनों के पास जा सकती है। ‘मेरे पास रहकर तो यह पतिव्रता नारी निश्चय ही केवल दुःख भागेगी । यद्यपि इसे त्याग देने पर एक संशय बना रहेगा तो भी यह सम्भव है कि इसे कभी सुख मिल जाय।। राजन् ! नल अनेक प्रकार से बार बार विचार करके एक निश्चय पर पहुंच गये और दमयन्ती का परित्याग कर देने में ही उसकी भलाई मानने लगे। ‘यह महाभागा यशस्विनी दमयन्ती मेरी भक्त और पतिव्रता है। पातिव्रत-तेज के कारण मार्ग में कोई इसका सतीत्व नष्ट नहीं कर सकता। ऐसा सोचकर उनकी बुद्धि दमयन्ती को अपने साथ रखने के विचार में निवृत्त हो गयी। बल्कि दुष्ट स्वभाव वाले कलियुग से प्रभावित होने के कारण दमयन्ती को त्याग देने में ही उनकी बुद्धि प्रवृत्त हुई। तदनन्तर राजन ने अपनी वस्त्रहीनता और दमयन्ती की एकवस्त्रता का विचार करके उसके आधे वस्त्र को फाड़ लेना ही उचित समझा। फिर यह सोचकर कि ‘मैं कैसे वस्त्र को काटूं, जिससे मेरी प्रिय की नीद न टूटे ।’ राजा नल धर्मशाला में (नंगे ही) इधर-उधर धूमने लगे। भारत ! इधर-उधर दौड़-धूप करने पर राजा नल को उस सभाभवन में एक अच्छी-सी नंगी तलवार मिल गयी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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