महाभारत वन पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-19

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षट्षष्टितम (66) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

राजा नल के द्वारा दावानल के कर्कोटक नाग की रक्षा तथा नागद्वारा नल को आष्वासन

बृहदश्व मुनि कहते हैं-युधिष्ठिर ! दमयन्ती को छोड़कर जब राजा नल आगे बढ़ गये, तब एक गहन वन में उन्होंने महान् दावानल प्रज्वलित होते देखा। उसी के बीच में उन्हें किसी प्राणी का यह शब्द सुनायी पड़ा-‘पुण्यश्लोक महाराज नल ! दौडि़ये, मुझे बचाइये।’ उच्चस्वर से बार-बार दुहरायी गयी इस वाणी को सुनकर राजा नल ने कहा-‘डरो मत’। इतना कहकर वे आग के भीतर घुस गये। वहां उन्होंने देखा, एक नागराज कुण्डलाकार पड़ा हुआ सो रहा है। उस नाग ने हाथ जोड़कर कांपते हुए नल से उस समय इस प्रकार कहा-‘राजन् मुझे कर्कोटक नाग समझिये । नरेश्वर ! एक दिन मेरे द्वारा महातेजस्वी ब्रह्मर्षि नारद ठगे गये, अतः मनुजेश्वर ! उन्होंने क्रोध से आविष्ट होकर मुझे शाप दे दिया-‘तुम स्थावर वृक्ष की भांति एक जगह पड़े रहो, जब कभी राजा नल आकर तुम्हें यहां से अन्यत्र ले जायंगे, तभी तुम मेरे शाप से छुटकारा पा सकोगे’। ‘राजन् ! नारदजी के उस शाप से मैं एक पग भी चल नहीं सकता; आप मुझे बचाइये, मैं आपको कल्याण कारी उपदेश दूंगा। ‘साथ ही मैं आपका मित्र हो जाउंगा। सर्पो में मेरे-जैसा प्रभावशाली दूसरा कोई नहीं है। मैं आपके लिये हल्का हो जाऊंगा। आप शीघ्र मुझे लेकर यहां से चल दीजिये’। इतना कहकर नागराज कर्कोटक अंगूठे के बराबर हो गया। उसे लेकर राजा नल वन के उस प्रदेश और चले गये, यहां दावानल नहीं था। अग्नि के प्रभाव से रहित अवकाश देश में पहुंचने पर जब नल ने उस नाग को छोड़ने का विचार किया, उस समय कर्कोटकने फिर कहा- ‘नषैघ ! आप अपने कुछ पैंड गिनते हुए चलित। महाबाहो । ऐसा करने पर मैं आपके लिये परम कल्याण का साधन करूंगा’। तब राजा नल ने अपने पैंड गिनने आरम्भ किये पैंड गिनते-गिनते तब राजा नल ने ‘दश’ कहा, तब नागने उन्हें डंस लिया। उसके हंसते ही उनका पहला रूप तत्काल अन्तर्हित (होकर श्याम वर्ण) हो गया। अपने रूप को इस प्रकार विकृत (गौरवर्ण से श्यामवर्ण) हुआ देख राजा नल को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने अपने पूर्वस्वरूप को धारण करके खड़े हुए कर्कोटक नाग को देखा। तब कर्कोटक नागने राजा नल को सान्त्वना देते हुए कहा-‘राजन् ! मैंने आपके पहले रूप को इसलिये अदृश्य कर दिया है कि लोग आपको पहचान न सकें। ‘महाराज नल ! जिस कलियुग के कपट से आपको महान् दुःख का सामना पड़ा है, वह मेरे विष से दग्ध होकर आपके भीतर बड़े कष्ट से निवास करेगा। ‘कलियुग के सारे अंग मेरे विष से व्याप्त हो जायंगे। महाराज ! वह जबतक आपको छोड़ नहीं देगा, तबतक आपके भीतर बड़े दुःख से निवास करेगा। ‘नरेश्वर ! आप छल-कपट द्वारा सताये जाने योग्य नहीं थे, तो भी जिसने बिना किसी अपराध के आपके साथ कपट का व्यवहार किया है, उसी के प्रति क्रोध से दोषदृष्टि रखकर मैंने आपकी रक्षा की है। ‘राजन् ! आपको विषमजनित पीड़ा कभी नहीं होगी। राजेन्द्र ! आप युद्ध में भी सदा विजय प्राप्त करंेगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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