गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 152
कहा जा सकता है कि मानव - प्राणी के रूप में भगवान् के प्राकटय की संभावना को दृष्टंतरूप से सामने रखने के लिये अवतार होता है कि ताकि मनुष्य देखे कि यह क्या चीज है और उसमें इस बात का साहस हो कि वह अपने जीवन को उसके जैसा बना सके। और यह इसलिये भी होता है पार्थिव प्रकृति की नसों में इस प्राकटय का प्रभाव बहता रहे और उस प्राकटय की आत्मा पार्थिव प्रकृति के ऊध्र्वगामी प्रयास का नेतृत्व करती रहे। यह जन्म मनुष्य को दिव्य मानवता का एक ऐसा आध्यात्मिक सांचा देने के लिये होता है जिसमें मनुष्य की जिज्ञासुं अंतरात्मा अपने - आपकों ढाल सके। यह जन्म एक धर्म देने के लिये - कोई संप्रदाय या मतविशेषमात्र नहीं, बल्कि आंतर और बाह्म जीवनयापन की प्रणाली - आत्म - संस्कारक मार्ग , नियम और विधन देने के लिये होता है जिसके द्वारा मनुष्य दिव्यता की और बढ़ सके। चूंकि मनुष्य का इस प्रकार आगे बढ़ना, इस प्रकार आरोहण करना मात्र पृथक और वैयक्तिक व्यापार नहीं है, बल्कि भवावान् के समस्त जगत् - कर्म की तरह एक सामूहिक व्यापार है, मानवमात्र के लिये किया गया कर्म है इसलिये अवतार का आना मानव - यात्रा की सहायता के लिये , महान् संकट - काल के समय मानवजाति को एक साथ रखने के लिये, अधोगामी शक्तियां जब बहुत अधिक बढ़ जाए तो उन्हें चूर्ण - विचूर्ण करने के लिये, मनुष्य के अंदर जो भगवन्मुखी महान् धर्म है उसकी स्थापना या रक्षा के लिये भगवान् के साम्राज्य की (फिर चाहे वह कितना ही दूर क्यों न हो) प्रतिष्ठा के लिये, प्रकाश और पूर्णता के साधकों , को विजय दिलाने के लिये और जो अशुभ और अंधकार को बनाये रखने के लिये युद्ध करते हैं उनके विनाश के लिये होता है ।
अवतार के ये हेतु सर्वमान्य हैं और उसके कर्म को देखकर ही जनसमुदाय उन्हें विशिष्ट पुरूष जानता और पूजने को तैयार होता है। केवल आध्यात्मिक मनुष्य ही यह देख पाते हैं कि अवतार एक चिह्न है, मानसिक और शारिरिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होकर उसे अपने साथ एकता में विकसित करने और उस पर अधिकार करने के लिये अपने - आपको अभिव्यक्त करने वाले सनातन आंतरिक भगवान् का प्रतीक है। बाह्म मानवरूप में ईसा, बुद्ध या कृष्ण का जो दिव्य प्राकटय होता है और मनुष्य के अदंर भगवान् के चिरंतन अवतार का जो प्राकटय होता है, दोनों के मूल में एक ही गूढ़ सत्य है। जो कुछ अवतारों के द्वारा इस पृथ्वी के बाह्म मानव- जीवन में किया गया है वह समस्त मानव - प्राणियों के अंदर दोहराया जा सकता है। अवतार लेने का यही उद्देश्य होता है, पर इसकी प्रणाली क्या है? अवतार के संबंध में एक यौक्तिक या संकीर्ण विचार है जिसे केवल इतना ही दिखायी देता है कि अवतार किन्हीं नैतिक, बौद्धिक और क्रियात्मक दिव्यतर गुणों की असाधारण अभिव्यक्तिमात्र होते हैं, जो साधारण मानवजाति का अतिक्रमण कर जाते हैं।
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