महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 29 श्लोक 24-34

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अष्‍टाविंश (28) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टाविंश अधयाय: श्लोक 24-34 का हिन्दी अनुवाद

इसी प्रकार क्षत्रिय स्वाध्‍याय, यज्ञ और दान करे। किसी से किसी भी वस्तु की याचना न करे। वह न तो दूसरों का यज्ञ करावे और न अध्‍यापन का ही कार्य करे; यही धर्मशास्त्रों में क्षत्रियों का प्राचीन धर्म बताया गया है । इसके सिवा क्षत्रिय धर्म के अनुसार सावधान रहकर प्रजाजनों की रक्षा करे, दान दे, यज्ञ करे, सम्पूर्ण वेदों का अध्‍ययन करके विवाह करे और पुण्‍य कर्मों का अनुष्‍ठान करता हुआ गृहस्थाश्रम में रहे। इस प्रकार वह धर्मात्मा क्षत्रिय धर्म एवं पुण्‍य का सम्पादन करके अपनी इच्छा अनुसार ब्रह्मलोक को जाता है। वैश्‍व अध्‍ययन करके कृषि, गोरक्षा तथा व्यापार द्वारा धनोपार्जन करते हुए सावधानी के साथ उसकी रक्षा करे। ब्राह्मणों और क्षत्रियों का प्रिय करते हुए धर्मशील एवं पुण्‍यात्मा होकर वह गृहस्थाश्रम में निवास करे। शूद्र ब्राह्मणों की सेवा तथा वन्दना करें, वेदों का स्वाध्‍याय न करे। उसके लिये यज्ञ का भी निषेध है। वह सदा उपयोगी और आलस्यरहित होकर अपने कल्याण के लिये चेष्‍ठा करे। इस प्रकार शूद्रों का प्राचीन धर्म बताया गया है। राजा सावधानी के साथ इन सब वर्णों का पालन करते हूए ही इन्हें अपने-अपने धर्म में लगावे। वह कामभोग में आसक्त न होकर समस्त प्रजाओं के साथ समानभाव से बर्ताव करे और पापपूर्ण इच्छाओं का कदापि अनुसरण न करे।
यदि राजा को य‍ह ज्ञात हो जाय कि उसके राज्य में कोई सर्वधर्मसम्पन्न श्रेष्‍ठ पुरूष निवास करता है तो वह उसी को प्रजा के गुण्‍-दोष का निरिक्षण करने के लिये नियु्क्त करे तथा उसके द्वारा पता लगावावे कि मेरे राज्य में कोई पापकर्म करने वाला तो नहीं है। जब कोई क्रूर मनुष्‍य दूसरे की धन-सम्पत्ति में लालच रखकर उसे ले लेने की इच्छा करता है और विधाता के कोप से (परपीडन के लिये) सेना-संग्रह करने लगता है, उस समय राजाओं में युद्ध का अवसर उपस्थित होता है। इस युद्ध के लिये ही कवच, अस्त्र-शस्त्र और धनुष का आविष्‍कार हुआ है। स्वयं देवराज इन्द्र ने ऐसे लुटेरों का वध करने के लिये कवच, अस्त्र-शस्त्र और धनुष का अविष्‍कार किया है। (राजाओं को) लुटेरों का वध करने से पुण्‍य की प्राप्ति होती है। सजंय! कौरवों में यह लुटेरेपन का दोष तीव्ररूप से प्रकट हो गया है, जो अच्छा नहीं है। वे अधर्म के तो पूरे पण्डित हैं; परंतु धर्म की बात बिल्कुल नहीं जानते। राजा घृतराष्‍ट्र अपने पुत्रों के साथ मिलकर सहसा पाण्‍डवों के धर्मत: प्राप्त उनक पैतृक राज्य का अपहरण करने को उतारू हो गये हैं। अन्य समस्त कौरव भी उन्हीं का अनुसरण कर रहे हैं। वे प्राचीन राजधर्म की ओर नहीं देखते हैं। चोर छिपा रहकर धन चुरा ले जाय अथवा सामने आकर डाका डाले, दोनों ही दशाओं में वे चोर-डाकू निन्दा के ही पात्र होते हैं। संजय! तुम्हीं कहो, घृतराष्‍ट्र-पुत्र दूर्योधन और उन चोर-डाकुओं में क्या अंतर है? दुर्योधन क्रोध के वशीभूत हो उसके अनुसार चलने वाला है और वह लोभ से राज्य को ले लेना चाहता है। इसे वह धर्म मान रहा है; परंतु वह तो पाण्‍डवों का भाग है, जो कौरवों के यहां धरोहर के रूप में रक्खा गया है। संजय! हमारे उस भाग को हमसे शत्रुता रखने वाले कौरव कैसे ले सकते हैं?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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