महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 88-111

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द्वयशीतितम (82) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 88-111 का हिन्दी अनुवाद

उसमें स्नान करने में मनुष्य शीघ्र ही इन्द्रलोक को प्राप्त होता है और पापों से शुद्ध हो परमगति प्राप्त कर लेता है। भारत ! वितस्तातीर्थ (झेलम) में जाकर वहां देवताओं और पितरों का तर्पण करने से मनुष्य को वाजपेययज्ञ का फल प्राप्त होता है। काश्मीर में ही नागराज तक्षक का वितस्ता नाम से प्रसिद्ध भवन है, जो सब पापो का नाश करने वाला है। वहां स्नान करने से मनुष्य निश्चय ही वाजपेययज्ञ का फल प्राप्त करता है और सब पापो से शुद्ध हो उत्तम गतिका भागी होता है। वहां से त्रिभुवनविख्यात वडवातीर्थ को जाय। वहां पश्चिम संध्या के समय विधिपूर्वक स्नान को आचमन करके अग्निदेव को यथाशक्ति चरू निवेदन करे। वहां पितरों के लिये दिया हुआ दान अक्षय होता है; ऐसा मनीषी पुरूष कहते हैं। राजन् ! वहां देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व, अप्सरा, गुह्यक, किन्नर, यक्ष, सिद्ध, विद्याधर, मनुष्य, राक्षस, दैत्य, रूद्र और ब्रह्म-इन सब ने नियमपूर्वक सहस्त्र वर्षो के लिये उत्तम दीक्षा ग्रहण करके भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये चरू अर्पण किया। ऋग्वेद के सात-सात मन्त्रों द्वारा सब ने चरू की सात-सात आहुतियां दी, और भगवान् केशव को प्रसन्न किया। उनपर प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अष्टगुण-ऐश्वर्य अर्थात् अणिमा आदि आठ सिद्धियां प्रदान कीं। महाराज ! तत्पश्चात् उनकी इच्छा के अनुसार अन्यान्य वर देकर भगवान् केशव वहां से उसी प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे मेघों की घटा से बिजली तिरोहित हो जाती है। भारत ! इसीलिये वह तीर्थ तीनों लोकों में सप्तचरू के नाम से विख्यात है। वहां अग्नि के लिये दिया हुआ चरू एक लाख गोदान, सौ राजसूय यज्ञ और सहस्त्र अश्वमेघ यज्ञ से भी अधिक कल्याकारी है। राजेन्द्र ! वहां से लौटकर रूद्रपद नामक तीर्थ में जाय। वहां महादेवजी की पूजा करके तीर्थयात्री पुरूष अश्वमेघ का फल पाता है। राजन् ! एकाग्रचित हो ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक मणिमान् तीर्थ में जाय और वहां एक रात निवास करे। इससे अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त होता है। भरतवंशशिरोमणे ! राजेन्द्र ! वहां से लोकविख्यात देविकातीर्थ की यात्रा करे, जहां ब्राह्मणों की उत्पत्ति सुनी जाती है। वहां त्रिशूलपाणि भगवान् महेश्वर का पूजन और उन्हें यथाशक्ति चरू निवेदन करके सम्पूर्ण कामनाओं से समृद्ध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है। वहां भगवान् शंकर का देवसेवित कामतीर्थ है। भारत ! उस में स्नान करके मनुष्य शीघ्र मनोवांछित सिद्धि प्राप्त कर लेता है। वहां यजन, याजन तथा वेदों का स्वाध्याय करके अथवा वहां की बालू, पुष्प एवं जल का स्पर्श करके मृत्यु को प्राप्त हुआ पुरूष शोक से पार हो जाता है। वहां पांच योजन लम्बी और आधा योजन चैड़ी पवित्र वेदिका हैं, जिसका देवता तथा ऋषि-मुनि भी सेवन करते हैं। धर्मज्ञ ! वहां से क्रमशः ‘दीर्धसत्र’ नामक तीर्थ में जाय। वहां ब्रह्म आदि देवता, सिद्ध और महर्षि रहते हैं। ये नियमपूर्वक व्रत का पालन करते हुए दीक्षा लेकर दीर्धसुत्र की उपासना करते हैं। शत्रुओं का दमन करनेवाले भरतवंशी राजेन्द्र ! वहां की यात्रा करने मात्र से मनुष्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञों के समान फल पाता है। तदनन्तर शौच-संतोषादि नियमों का पालन और नियमित आहार ग्रहण करते हुए विनशनतीर्थ में जाय, जहां मेरू पृष्ठपर रहनेवाली सरस्वती अदृश्य भाव से बहती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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