महाभारत आदि पर्व अध्याय 139 श्लोक 59-70
एकोनचत्वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
जिसे शीघ्र ही मार डालने की इच्छा हो, उसके घर में आग लगा दे। धनहीनों, नास्तिकों और चोरों को अपने राज्य में न रहने दें । (शत्रु के) आने पर उठकर अगवानी करें, आसन और भोजन दें और कोई प्रिय वस्तु भेंट करें। ऐसे बर्तावों से अपने प्रति जिसका पूर्ण विश्वास हो गया हो, उसे भी (अपने लाभ के लिये) मारने में संकोच न करे। सर्प की भांति तीखे दोतों से काटे, जिससे शत्रु फिर उठकर बैठ न सके । जिनसे भय प्राप्त होने का संदेह न हो, उनसे भी सशंक (चौकन्ना) ही रहे और जिनके भय की आशंका हो, उनकी ओर से सब प्रकार से सावधान रहे ही। जिनसे भय की शंका नहीं है, ऐसे लोगों से यदि भय उत्पन्न होता है तो वह मूलोच्छेद कर डालता है । जो विश्वासपात्र नहीं है उस पर कभी विश्वास न करे; परंतु जो विश्वासपात्र है उस पर भी अति विश्वास न करे; क्योंकि अति विश्वास से उत्पन्न होने वाला भय राजा की जड़मूल का भी नाश कर डालता है । भलीभांति जांच-परख कर अपने तथा शत्रु राज्य में गुप्तचर रक्खे। शत्रु के राज्य में ऐसे गुप्तचरोंको नियुक्त करे जो पाखण्ड-वेषधारी अथवा तपस्वी आदि हों । उद्यान, घूमने फिरने के स्थान, देवालय, मद्यपान के अड्डे, गली या सड़क, सम्पूर्ण तीर्थ स्थान, चौराहे, कुऐं, पर्वत, वन, नदी तथा जहां मनुष्यों की भीड़ इकट्ठी होती हो, उन सभी स्थानों में अपने गुप्तचरों को घुमाता रहे । राजा बातचीत में अत्यन्त विनयशील हो परंतु हृदय छूरे के समान तीखा बनाये रक्खे। अत्यन्त भयानक कर्म करने के लिये उद्यत हो तो भी मुस्कराकर ही बार्तालाप करे । अवसर देखकर हाथ जोड़ना, शपथ खाना, आश्वासन देना, पैरों पर मस्तक रखकर प्रणाम करना और आशा बांधना- ये सब ऐश्वर्य प्राप्ति की इच्छा वाले राजा के कर्तव्य हैं । नितिज्ञ राजा ऐसे वृक्ष के समान रहे जिसमें फूल तो खूब लगे हों परंतु फल न हो (वह बातों से लोगों को फल की आशा दिखाये, उसकी पूर्ति न करे)। फल लगने पर भी उस पर चढ़ना अत्यन्त कठिन हो (लोगों की स्वार्थ सिद्ध में वह विघ्न डाले या विलंब करे)। वह रहे तो कच्चा, पर दीखे पके के समान (अर्थात स्वार्थ साधकों की दुराशा को पूर्ण न होने दे) । कभी स्वयं जीर्ण न हो (तात्पर्य यह है कि अपना धन खर्च करके शत्रुओं का पोषण करते हुए अपने आप को निर्धन न बना दे) । धर्म अर्थ और काम- इन त्रिविध पुरुषार्थ के सेवन में तीन प्रकार की बाधा-अड़चन उपस्थित होती है। उसी प्रकार उनके तीन ही प्रकार के फल होते हैं। (धर्म का फल है अर्थ एवं काम अर्थात भोग की प्राप्ति, अर्थ का फल है धर्म का सेवन एवं भोग की प्राप्ति और काम अर्थात भोग का फल है- इन्द्रिय तृप्ति।) इन (तीन प्रकार के) फलों को शुभ (वरणीय) जानना चाहिये; परंतु (उक्त तीनों प्रकार की) बाधाओं से यत्नपूर्वक बचना चाहिये। (त्रिविध पुरुषार्थों को सेवन इस प्रकार करना चाहिये कि तीनों एक दूसरे के बाधक न हों। अर्थात जीवन में तीनों का सामञ्जस्य ही सुखदायक है।) । धर्म का अनुष्ठान करने वाले धर्मात्मा पुरुष के धर्म में काम और अर्थ- इन दोनों के द्वारा प्राप्त होने वाली पीड़ा बाधा पहुंचाती है। इसी प्रकार अर्थ लोभी के अर्थ में और अत्यन्त भोगासक्त काम में भी शेष दो वर्गों द्वारा प्राप्त होने वाली पीड़ा बाधा उपस्थित करती है ।
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