महाभारत आदि पर्व अध्याय 173 श्लोक 1-15

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त्रिसप्‍तत्‍यधिकशततम (173 ) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रिसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

गन्‍धर्व का वसिष्‍ठजी की महत्‍ता बताते हुए किसी श्रेष्‍ठ ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिये आग्रह करना वैशम्‍पायनजी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ जनमेजय ! गन्‍धर्व का यह कथन सुनकर अर्जुन अत्‍यन्‍त भक्ति-भाव के कारण पूर्ण चन्‍द्रमा के समान शोभा पाने लगे । फिर महाधनुर्धर कुरुश्रेष्‍ठ अर्जुन ने गन्‍धर्व से कहा- सखे ! वसिष्‍ठ के तपोबल की बात सुनकर मेरे हृदय में बड़ी उत्‍कण्‍ठा पैदा हो गयी है । तुमने उन महर्षि का नाम वसिष्‍ठ बताया था। उनका यह नाम क्‍यों पड़ा? इसे मैं सुनना चाहता हूं। तुम यथार्थ रुप से मुझे बताओ । गन्‍धर्वराज ! ये जो हमारे पूर्वजों के पुरोहित थे, वे भगवान वसिष्‍ठ मुनि कौन हैं ? यह मुझसे कहो । गन्‍धर्व ने कहा- वसिष्‍ठजी ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं। उनकी पत्‍नी का नाम अरुन्‍धती है। जिन्‍हें देवता भी कभी जीत नहीं सके, वे काम और क्रोध नामक दोनों शत्रु वसिष्‍ठजी की तपस्‍या से सदा के लिये पराभूत होकर उनके चरण दबाते रहे हैं। इन्द्रियों को वश में करने के कारण वे वशिष्‍ट कहलाते हैं । विश्रामित्र के अपराध से मन में पवित्र क्रोध धारण करते हुए भी उन उदाबुद्धि महर्षि ने कुशिकवंश का समूलोच्‍छेद नहीं किया । विश्वामित्र द्वारा अपने सौ पुत्रों के मारे जाने से वे संतप्‍त थे, उनमें बदला लेने की शक्ति भी थी, तो भी उन्‍होंने असमर्थ की भांति सब कुछ सह लिया एवं विश्वामित्र का विनाश करने के लिये कोई दारुण कर्म नहीं किया । वे अपने मरे हुए पुत्रों को यमलोक से वापस ला सकते थे; परंतु जैसे महासागर अपने तट का उल्‍लघंन नहीं करता, उसी प्रकार वे यमराज को मर्यादा को लांघने के लिये उद्यत नहीं हुए । उन्‍हीं जितात्‍मा महात्‍मा वसिष्‍ठ मुनि को (पुरोहित रुप में) पाकर इक्ष्‍वाकुवंशी भूपालों ने (दीर्घकाल तक) इस (समूची) पृथ्‍वी पर अधिकार प्राप्‍त किया था। कुरुनन्‍दन ! इन्‍हीं मुनिश्रेष्‍ठ वसिष्‍ठ को पुरोहित रुप में पाकर उन नरपतियों ने बहुत-से यज्ञ भी किये थे। पाण्‍डवश्रेष्‍ठ! जैसे बृहस्‍पतिजी सम्‍पूर्ण देवताओं का यज्ञ कराते हैं, उसी प्रकार ब्रह्मषि वसिष्‍ठ ने उन सम्‍पूर्ण श्रेष्‍ठ राजाओं का यज्ञ कराया था। इसलिये जिसके मन में धर्म की प्रधानता हो, जो वेदोक्‍त धर्म का ज्ञाता और मन के अनुकूल हो; ऐसे किसी गुणवान् ब्राह्मण को आप लोग भी पुरोहित बनाने का निश्‍चय करें । पार्थ ! पृथ्‍वी को जीतने की इच्‍छा रखने वाले कुलीन क्षत्रिय को अपने राज्‍य की वृद्धि के लिये पहले (किसी श्रेष्‍ठ ब्राह्मण को) पुरोहित नियुक्‍त कर लेना चाहिये । पृथ्‍वी को जीतने की इच्‍छा वाले राजा को उचित है कि वह ब्राह्मण को अपने आगे रक्‍खे, अत: कोई गुणवान् , जितेन्‍द्रीय, वेदाभ्‍यासी, विद्वान् तथा धर्म, काम और अर्थ का तत्‍वज्ञ ब्राह्मण आपका पुरोहित हो ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तगर्त चैत्ररथपर्व में पुरोहित बनाने के लिये कथन सम्‍बन्‍धी एक सौ तिहतरवां अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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