महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 67-86

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त्रयस्त्रिंश (33) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अधयाय: श्लोक 67-86 का हिन्दी अनुवाद

भारत! वरदान पाना, राज्य की प्राप्ति और पुत्र का जन्म- ये तीन एक ओर और शत्रु के कष्‍ट से छूटना- यह एक ओर; वे तीन और यह एक बराबर ही हैं। भक्त, सेवक तथा मैं आपका ही हूं, ऐसा कहने वाले-इन तीन प्रकारके शरणागत मनुष्‍यों को संकट पड़ने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये। थोड़ी बुद्धिवाले, दीर्घसूत्री, जल्दबाज और स्तुति करने-वाले लोगों के साथ गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये। ये चारों महाबली राजा के लिये त्यागने योग्य बताये गये हैं। विद्वान् पुरूष ऐसे लोगों को पहचान ले। तात! गृहस्‍थधर्म में स्थित आप लक्ष्‍मीवान् के घर में चार प्रकार के मनुष्‍यों को सदा रहना चाहिये-अपने कुटुम्‍ब का बूढ़ा, संकट में पड़ा हुआ उच्‍च कुल का मनुष्‍य, धनहीन मित्र ओर बिना संतान की बहिन। महाराज! इन्‍द्र कि पूछने पर उनसे बृहस्‍पतिजी ने जिन चारों को तत्‍काल फल देनेवाला बताया था, उन्‍हें आप मुझसे सुनिये-। देवताओं का संकल्‍प, बुद्धिमानों का प्रभाव, विद्वानों की नम्रता ओर पापियों का विनाश। चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं; किंतु वे ही यदि ठीक तरह से सम्‍पादित न हों, तो भय प्रदान करते हैं।वे कर्म है-आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्‍वाध्‍याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्‍ठान। भरतश्रेष्‍ठ! पिता, माता, अग्नि, आत्‍मा ओर गुरू-मनुष्‍य को इन पांच अग्नियों की बड़े यत्‍न से सेवा करनी चाहिये।
देवता, पितर, मनुष्‍य, संयासी और अतिथि-इन पांचों की पूजा करने वाला मनुष्‍य शुद्ध यश प्राप्‍त करता है। राजन्! आप जहां-जहां जायंगे, वहां-वहां मित्र, शत्रु, उदासीन, आश्रम देनेवाले तथा आश्रम पाने वाले-ये पाचं आपके पीछे लगे रहेंगे। पांच ज्ञानेन्द्रियों वाले पुरूष की यदि एक भी इन्द्रिय छिद्र (दोष) युक्‍त हो जाय तो उससे उसकी वृद्धि इस प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशकके छेद से पानी। ऐश्र्वर्य या उन्‍नति चाहने वाले पुरूषों को नींद, तन्‍द्रा (ऊंघना), डर, क्रोध,आलस्‍य तथा दीर्घसूत्रता (जल्‍दी हो जाने वाले काम में अधिक देर लगाने की आदत)-इन छ: दुर्गुणों को त्‍याग देना चाहिये। उपदेश न देनेवाले आचार्य, मन्‍त्रोच्‍चारण न करने वाले होता, रक्षा करने में असमर्थ राजा, कुद वचन बोलने वाली स्‍त्री, ग्राम में रहने की इच्‍छा वाले ग्‍वाले तथा वन में रहने की इच्‍छावाले नाई-इन छ: को उसी भांति छोड़ दे, जैसे समुद्र की सैर करने वाला मनुष्‍य छिद्र युक्‍त नाव का परित्‍याग कर देता है। मनुष्‍य को कभी भी सत्‍य, दान, कर्मण्‍यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव), क्षमा तथा धैर्य-इन छ: गुणों का त्‍याग नहीं करना चाहिये। राजन्! धन की प्राप्ति, नित्‍य नीरोग रहना, स्‍त्री का अनुकूल तथा प्रियवादिनी होना, पुत्र का आज्ञा के अंदर रहना तथा धन पैदा कराने वाली विद्या का ज्ञान-ये छ: बातें इस मनुष्‍यलोक में सुखदायिनी होती हैं। मन में नित्‍य रहनेवाले छ: शत्रु-(काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्‍सर्य) को जो वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरूष पापों से ही लिप्‍त नहीं होता, फिर उनसे उत्‍पन्‍न होने वाले अनर्थों से युक्‍त होने की तो बात ही क्‍या है? निम्‍नाकित छ: प्रकार के मनुष्‍य छ: प्रकार के लोगों से अपनी जीविका चलाते हैं, सातवें की उपलब्धि नहीं होती। चोर असावधान पुरूष से, वैद्य रोगी से, कामोन्‍मत्‍त स्त्रियां कामियों-से, पुरोहित यजमानों से, राजा झगड़नेवालों से तथा विद्वान् पुरूष मूर्खों से अपनी जीविका चलाते हैं। मुहूर्तभर भी देख-रेख न करने से गौ, सेवा, खेती, स्‍त्री, विद्या तथा शूद्रों से मेल-ये छ: चीजें नष्‍ट हो जाती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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