महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-13

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षट्-त्रिंश(35) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चत्रिंश अधयाय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

दत्‍तात्रेय और साध्‍य देवताओं के संवादका उल्‍लेख करके महाकुलीन लोगों का लक्षण बतलाते हुए विदुर का धृतराष्‍ट्र को समझाना

विदुर जी कहते हैं-राजन्! इस विषय में लोग दत्‍तात्रेय और साध्‍वदेवताओं के संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं; यह मेरा भी सुना हुआ । प्राचीनकाल की बात है, उत्‍तम व्रतवाले महाबुद्धिमान् महर्षि दत्‍तात्रेयजी हंस (परमहंस) रूप से विचर कर रहे थे; उस समय साध्‍यदेवताओं ने उनसे पूछा।

साध्‍य बोले-महर्षे! हम सब लोग साध्‍यदेवता हैं, केवल आपको देखकर हम आपके विषय में कुछ अनुमान नहीं कर सकते। हमें तो आप शास्‍त्रज्ञान से युक्‍त, धीर एवं बुद्धिमान् जान पड़ते हैं; अत: हमलोगों को अपनी विद्वत्‍तापूर्ण उदार वाणी सुनाने की कृपा करें।

परमहंसने कहा-साध्‍यदेवताओ! मैंने सुना है कि धैर्य-धारण, मनोनिग्रह तथा सत्‍य-धर्मों का पालन ही कर्तव्‍य है; इसके द्वारा पुरूष को चाहिये कि हृदय की सारी गांठ खोलकर प्रिय और अप्रिय को अपने आत्‍मा के समान समझे। दूसरों से गाली सुनकर भी स्‍वयं उन्‍हें गाली न दे। (गाली को) सहन करनेवाले का रोका हुआ क्रोध ही गाली देने वाले को जला डालता है और उसके पुण्‍य को भी ले लेता है। दूसरों को न तो गाली दे और न उनका अपमान करे, मित्रों से द्रोह तथा नीच पुरूषों की सेवा न करे, सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हो, रूखी तथा रोषभरी वाणी का परित्‍याग करे। इस जगत् में रूखी बातें मनुष्‍यों के मर्मस्‍थान, हड्डी, हृदय तथा प्राणों को दग्‍ध करती रहती है; इसलिये धर्मानुरागी पुरूष जलानेवाली रूखी बातोंका सदा के लिये परित्‍याग कर दे। जिसकी वाणी रूखी ओर स्‍वभाव कठोर है, जो मर्मस्‍थानपर आधात करता और वाग्‍बाणों से मनुष्‍यों को पीड़ा पहुंचाता हैं, उसे ऐसा समझना चाहिये कि वह मनुष्‍यों में महादरिद्र है और वह अपने मुख से दरिद्रता अथवा मौत को बांधे हुए ढो रहा । यदि दूसरा कोई इस मनुष्‍य को अग्नि और सूर्य के समान दग्‍ध करनेवाले अत्‍यंत तीखे वाग्‍बाणों से बहुत चोट पहुंचावे तो वह विद्वान् पुरूष चोट खाकर अत्‍यंत वेदना सहते हुए भी ऐसा समझे कि वह मेरे पुण्‍यों को पुष्‍ट कर रहा है। जैसे वस्‍त्र जिस रंग में रंगा जाय,वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकारयदि कोई सज्‍जन, असज्‍जन, तपस्‍वी अथवा चोर-की सेवा करता है तो वह उन्‍ही के वश में हो जाता है-उसपर उन्‍हीं का रंग चढ़ जाता है। जो स्‍वयं किसी के प्रति बुरी बात नहीं कहता, दूसरों से भी नहीं कहलाता, बिना मार खाये स्‍वयं न तो किसी को मारता है और न दूसरों से ही मरवाता है, मार खाकर भी अपराधी को जो मारना नहीं चाहता, (स्‍वर्ग में) देवता भी उसके आगमन की बाट जोहते रहते हैं। बोलने से न बोलना ही अच्‍छा बताया गया है, (यह वाणी की प्रथम विशेषता है ओर यदि बोलना ही पड़े तो) सत्‍य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है यानी मौन की अपेक्षा भी अधिक लाभपद्र है। (सत्‍य और) प्रिय बोलना वाणी-की तीसरी विशेषता है। यदि सत्‍य और प्रिय के साथ ही धर्म-सम्‍मत भी कहा जाय, तो वह वचन की चौथी विशेषता है। (इनमें उत्‍त्‍रोत्‍तर श्रेष्‍ठता है )। मनुष्‍य जैसे लोगोंके साथ रहता है, जैसे लोगोंकी सेवा करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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