महाभारत वन पर्व अध्याय 152 श्लोक 1-14

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द्विपञ्चाशदधिकशततम (150) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्विपञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

यः

भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुंचना

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! उन कपिप्रवर हनुमान जी चले जानेपर बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन भी उनके बताये मार्गसे गन्धमादन पर्वतपर विचरने लगे। मार्गमें वे हनुमान जी के उन अद्भूत विशाल विग्रह और अनुपम शोभाका तथा दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी के अलौकिक माहत्म्य एवं प्रभावका बार बार स्मरण करते जाते थे। सौगन्धिक वनको प्राप्त करनेकी इच्छासे उन्होंने उस समय वहांके सभी रणणीय वनों और उपवनोंका अवलोकन किया। विकसित वृक्षोंके कारण विचित्रशोभा धारण करने-वाले कितने ही सरोवर और सरिताओंपर दृष्टिपात किया तथा अनेक प्रकारके कुसुमोंसे अद्भूत प्रतीत होनेवाले खिले फूलोंसे युक्त काननोंका भी निरीक्षण किया। भारत! उस समय बहते हुए मदके पंकसे भीगे मतवाले राजराजोंके अनेकानेक यूथ वर्षा करनेवाले मेघोंके समूहके समान दिखलायी देते थे। शोभाशाली भीमसेन मुंहमें हरी घासका कौर लिये हुए चंचल नेत्रोंवाले हरिणों और हरिणियोंसे युक्त उस बनकी शोभा देखते हुए बड़े वेगसे चले जा रहे थे। उन्होंने अपनी अद्भूत शूरतासे निर्भय होकर भैंसो, बराहों और सिंहोसे सेवित गहन वनमें प्रवेश किया। फूलोंकी अनन्त सुगन्धसे वासित तथा लाल-लाल पल्लवोंके कारण कोमल प्रतीत होनेवाले वृक्ष हवाके वेगसे हिलहिलकर मानो उन वनमें भीमसेनसे याचना कर रहे थे। मार्गमें उन्हें अनेक ऐसी पुष्करिणियोंको लांघना पड़ा, जिनके घाट और वन देखनेमें बहुत प्रिय लगते थे। मतवाले भ्रमर उनका सेवन करते थे तथा वे सम्पुटित कमलकोषोंसे अलंकृत हो ऐसी जान पड़ती थीं, मानो उन्होंने कमलोंकी अंजलि बांध रक्खी थी। भीमसेनका मन और उनके नेत्र कुसुमोंसे अलंकृत पर्वतीय शिखरोपर लगे थे। द्रौपदीका अनुरोधपूर्ण वचन ही उनके लिये पाथेय था और इस अवस्थामें वे अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक चले जा थे। दिन बीतते-बीतते भीमसेनने एक वनमें, जहां चारों ओर बहुतसे हरिण विचर रहे थे, सुन्दर सुवर्णमय कमलोंसे सुशोभित विशाल नदी देखी। उसमें इस ओर कारण्डव आदि जलपक्षी निवास करते थे। चक्रवाक उसकी शोभा बढ़ाते थे। वह नदी क्या थी उस पर्वतके लिये स्वच्छ सुन्दर कमलोंकी माला-सी रची गयी थी।। महान् धैर्य और उत्साहसे सम्पन्न वीरवर भीमसेनने उसी नदीमें विशाल सौगन्धिक वन देखा, जो उनकी प्रसन्नता को बढ़ानेवाला था। उस वनसे प्रभातकालीन सूर्यकी भांति प्रभा फैल रही थी। उस वनको देखकर पाण्डुनन्दन भीमने मन-ही-मन यह अनुभव किया कि मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया। फिर उन्हें वनवासके क्लेषोंसे पीडि़त अपनी प्रियतमा द्रौपदीकी याद आ गयी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थ-यात्रा पर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें सौगन्धिक कमलको लानेसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ बाबनवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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