महाभारत वन पर्व अध्याय 157 श्लोक 65-72
सप्तञ्चाशदधिकशततम (157) अध्याय: वन पर्व (जटासुरवध पर्व)
तत्पश्चात् अपने-अपने बलके घमंड़में भरे हुए वे दोनों वीर एक दूसरेकी ओर झपटकर पुनः अपनी भुजाओंसे कसते हुए विपक्षीको उसी प्रकार खींचने लगे, जैसे दो गजराज परस्पर भिड़कर एक-दूसरेाको खींच रहे हों। अपने अत्यन्त भयानक मुक्कोंद्वारा वे परस्पर चोट करने लगे। तब उन दोनों महाकाय वीरोंमें जोर-जोरसे कटकटानेकी आवाज होने लगी। तदनन्तर भीमसेनने पांच सिरवाले सर्पकी भांति अपने पांच अंगुलियोंसे युक्त हाथकी मुठी बांधकर उसे राक्षसकी गर्दनपर बड़े वेगसे दे मारा। भीमसेनकी भुजाओंके आघातसे वह राक्षस थक गया था। तदनन्तर उसे अधिक थका हुआ देख भीमसेन आगे बढ़ते गये। तत्पश्चात् देवताओंके समान तेजस्वी महाबाहु भीमसेनने उस राक्षसको दोनों भुजाओंसे बलपूर्वक उठा लिया और उसे पृथ्वीपर पटककर पीस डाला। उस समय पाण्डुनन्दन भीमने उसके सारे अंगोंको दबाकर चूर-चूर कर दिया और थप्पड़ मारकर उसके सिरको धड़से अलग कर दिया। भीमसेनके बलसे कटकर अलग हुआ जटासुरका वह सिर वृक्षसे टूटकर गिरे हुए फलके समान जान पड़ता था। उसका ओठ दांतोंसे दबा हुआ था और आंखें बहुत फैली हुई थीं। दांतोंसे दबे हुए ओठवाला वह मस्तक खूनसे लथपथ होकर गिर पड़ा था। इस प्रकार जटासुरको मारकर महान् धनुर्धर भीमसेन युधिष्ठिरके पास आये। उस समय श्रेष्ठ द्विज उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे, मानो मरूद्रण देवराज इन्द्रके गुण गा रहे हों।
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