महाभारत आदि पर्व अध्याय 195 श्लोक 1-17

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पञ्चनवत्‍यधिकशततम (195) अध्‍याय: आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: पञ्चनवत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

व्‍यासजी के सामने द्रौपदी का पांच पुरुषों से विवाह होने के विषय में द्रुपद, धृष्‍टद्युम्‍न और युधिष्ठिर का अपने-अपने विचार व्‍यक्‍त करना वैशम्‍पायनजी कहते है- जनमेजय ! तदनन्‍तर वे पाण्‍डव तथा महायशस्‍वी पाञ्जालराज द्रुपद –सबने खड़े होकर महात्‍मा श्रीकृष्‍ण द्वैपायन व्‍यासजी को प्रणाम किया।। उनके द्वारा की हुर्इ पूजा को प्रसन्‍न्‍तापूर्वक स्‍वीकार करके अन्‍त में सबसे कुशल-मंगल पूछकर महामना व्‍यासजी शुद्ध सुवर्णमय आसन पर विराजमान हुए। फि‍र अमित-तेजस्‍वी व्‍यासजी की आज्ञा पाकर वे सभी नरश्रेष्‍ठ बहुमुल्‍य आसनों पर बैठे। राजन् ! तदनन्‍तर दो घड़ी के बाद राजा द्रुपद ने मीठी वाणी बोलकर महात्‍मा व्‍यासजी को द्रौपदी के विषय में पूछा- ‘भगवन् ! एक ही स्‍त्री बहुत-से पुरुषों की धर्मपत्‍नी कैसे हो सकती है ? जिससे संकरता का दोष न लगे, यह सब आप ठीक-ठीक बतावें’। व्‍यासजी ने कहा- अत्‍यन्‍त गहन होने के कारण शास्‍त्रीय आवरण के द्वारा ढके हुए अतएव इस लोक वेद विरुद्ध धर्म के सम्‍बन्‍ध में तुममें से जिसका-जिसका जो-जो मत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूं। द्रुपद बोले- द्विजश्रेष्‍ठ ! मेरी राय में तो यह अधर्म ही है; क्‍योंकि यह लोक और वेद दोनों के विरुद्ध है। बहुत-से पुरुषों की एक ही पत्‍नी हो, ऐसा व्‍यवहार कहीं भी नहीं है। पूर्ववर्ती महात्‍मा पुरुषो ने भी ऐसे धर्म का आचरण नहीं किया है; और विद्वान पुरुषों को किसी प्रकार भी अधर्म का आचरण नहीं करना चाहिये। इसलिये मैं इस धर्मविरोधी आचार को काम में नहीं लाना चाहता। मुझे तो इस कार्य के धर्मसंगत होने में सदा ही संदेह जान पड़ता है। धृष्‍टद्युम्‍न बोले- द्विजश्रेष्‍ठ ! आप ब्राह्मण हैं, तपोधन हैं, आप ही बताइये बड़ा भाई सदाचारी होते हुए भी अपने छोटे भाई की स्‍त्री के साथ समागम कैसे कर सकता है ?। धर्म का स्‍वरुप अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म होने के कारण हम उसकी गति को सर्वथा नहीं जानते; अत: यह कार्य अधर्म है या धर्म, इसका निश्‍चय करना हम-जैसे लोगों के लिये असम्‍भव है, ब्रह्मन् ! इसीलिये हम किसी तरह भी ऐसी सम्‍मति नहीं दे सकते कि राजकुमारी कृष्‍णा पांच पुरुषों की धर्मपत्‍नी हो। युधिष्ठिर ने कहा- मेरी वाणी कभी झूठ नहीं बोलती और मेरी बुद्धि भी कभी अधर्म में नहीं लगती; परंतु इस विवाह में मेरे मन की प्रवृति हो रही है, इसलि‍ये यह किसी प्रकार भी अधर्म नहीं है। पुराणों में भी सुना जाता है कि धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ जटिला नामवाली गौतम गौत्र की कन्‍या ने सात ॠषियों के साथ विवाह किया था। इसी प्रकार कण्‍डु मुनि की पुत्री वाक्षी ने तपस्‍या से पवित्र अन्‍त:करण वाले दस प्रचेताओं के साथ, जिनका एक ही नाम था और जो आपस में भाई-भाई थे, विवाह सम्‍बन्‍ध स्‍थापित किया था। धर्मज्ञों में श्रेष्‍ठ व्‍यासजी ! गुरुजनों की आज्ञा को धर्मसंगत बताया गया है और समस्‍त गुरुओं में माता परम गुरु मानी गयी है। हमारी माता ने भी यही बात कही है कि तुम सब लोग भिक्षा की भांति इसका उपभोग करो; अत: द्विजश्रेष्‍ठ ! हम पांचों भाइयों के साथ होने वाले इस विवाहसम्‍बन्‍ध को परम धर्म मानते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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