महाभारत वन पर्व अध्याय 166 श्लोक 1-17

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षट्षष्टयधिकशततम (166) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: षट्षष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

इन्द्रका पाण्डवोंके पास आना और युधिष्ठिरको सान्त्वना देकर स्वर्गको लौटना

वैशम्पायनजी कहते है-जनमेजय! तदनन्तर रात बीतनेपर प्रातःकाल उठकर समस्त भाइयोंसहित अर्जुनने धर्मराज युधिष्ठिरको प्रणाम किया। इसी समय अन्तरिक्षमें देवतओं सम्पूर्ण वाद्योंकी तुमूल ध्वनि गूंज उठी। भारत! रथके पहियोंकी घर्घराहट, घंटानाद तथा सर्प, मृग एवं पक्षियोंके कोलाहल सब ओर पृथक्-पृथक् सुनायी दे रहे थे। पाण्डवोंने प्रसन्नतापूर्वक उस ध्वनिकी ओर आंख उठाकर देखा, तो उन्हें देवराज इन्द्र दृष्टिगोचर हुए जो सम्पूर्ण मरूद्रण आदि देवताओंके साथ आकाशमार्गसे आ रहे थे। गन्धर्वो और अप्सराओंके समूह सूर्यके समान तेजस्वी विमानोंद्वारा शत्रुदमन देवराजको चारों ओरसे घेरकर उन्हींके पथका अनुसरण कर रहे थे। थोड़ी ही देरमें हरे रंगके घोड़ोसे जुत हुए, मेघ-गर्जनाके समान गम्भीर घोष करनेवाले, जाम्बूनद नामक सुवर्णसे अलंकृत रथपर आरूढ़ देवराज इन्द्र पाण्डवोंके पास आ पहुंचे। उस समय वे अपनी उत्कृष्ट प्रभासे अत्यन्त उद्भसित हो रहे थे। निकट आनेपर सहस्त्रलोचन इन्द्र रथसे उतर गये। उन महामना देवराजको देखते ही भाइयोंसहित श्रीमान् धर्मराज युधिष्ठिर उनके पास गये। यज्ञोंमें प्रचुर दक्षिणा देनेवाले युधिष्ठिरने शास्त्रवर्णित पद्धतिसे अमितबुद्धि इन्द्रका विधिवत् स्वागत सत्कार किया। तेजस्वी अर्जुन भी इन्द्रको प्रणाम करके उनके समीप सेवककी भांति विनीत भावसे खड़े हो गये। महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर अर्जुनको देवराजके समीप विनीतभावसे स्थित देख बड़े प्रसन्न हुए। अर्जुनके सिरपर जटा बंध गयी थी। वे देवराजके आदेशके अनुसार तपस्यामें लगे रहते थे; अतः सर्वथा निष्पाप हो गयेथे। अर्जुनको देखनेसे उन्हें महान् हर्ष हुआ था। अतः देवराजका पूजन करके वे बड़े प्रसन्न हुए उदारचित राजा युधिष्ठिरको इस प्रकार हर्षमें भग्र देखकर परम बुद्धिमान् देवनाज इन्द्रने कहा-'पाण्डुनन्दन! तुम इस पृथ्वीका शासन करोगे। कुन्तीकुमार! अब तुम पुनः काम्यक वनके कल्याणकारी आश्रममें चले जाओ। 'राजन्! पाण्डुनन्दन अर्जुनको एकाग्रचित होकर मुझसे सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये है। साथ ही उन्होंने मेरा बड़ा प्रिय कार्य सम्पन्न किया है। तीनों लोकोंके समस्त प्राणी इन्हें युद्धमें परास्त नहीं कर सकते। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर इन्द्र महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति हुए सानन्द स्वर्गलोकको चले गये। धनाध्यक्ष कुबेरके घरमें टिके हुए पाण्डवोंको जो इन्द्रके साथ समागम हुआ था, उस प्रसंगको जो विद्वान एकाग्रचित होकर प्रतिदिन पढ़ता है और संयम नियमसे रहकर कठोर व्रतका आश्रय ले एक वर्षतक ब्रह्मचर्यका पालन करता हैं, वह सब प्रकारकी बाधाओंसे रहित हो सौ वर्षोंतक सुखपूर्वक जीवन धारण करता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्ध पर्व में इन्द्रागमनविषयक एक सौ छाछठवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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