महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 53-69

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चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद

यों तो (मादक वस्‍तुओं के) पीने का नशा आदि भी नशा ही है, किंतु ऐश्र्वर्य का नशा तो बहुत ही बुरा है; क्‍योंकि ऐश्र्वर्य के मद से मतवाला पुरूष भ्रष्‍ट हुए बिना होश में नहीं आता। वश में न होने के कारण विषयों में रमने वाली इन्द्रियों से यह संसार उसी भांति कष्‍ट पाता है, जैसे सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र तिरस्‍कृत हो जाते हैं। जो मनुष्‍य जीवों को वश में करने वाली सहज पांच इन्द्रियों से जीत लिया गया, उसकी आपत्तियां शुक्लपक्ष के चन्‍द्रमा की भांति बढ़ती हैं। इन्द्रियों सहित मन को जीते बिना ही जो मन्त्रियों को जीतने की इच्‍छा करता है या मन्त्रियों को अपने अधीन किये बिना शत्रु जीतना चाहता है, उस अजितेन्द्रिय पुरूष को सब लोग त्‍याग देते हैं। जो पहले इन्द्रियोंसहित मन ही शत्रु समझकर जीत लेता है, उसके बाद यदि वह मन्त्रियों तथा शत्रुओं को जीतने की इच्‍छा करे तो उसे सफलता मिलती है। इन्द्रियों तथा मन को जीतने वाले, अप‍राधियों को दण्‍ड देनेवाले और जांच-परखकर काम करने वाले धीर पुरूष की लक्ष्‍मी अत्‍यंत सेवा करतीहै। राजन्! मनुष्‍यका शरीर रथ है, बुद्धि सारथि है और इन्द्रियां इसके घोड़े हैं।इनको वश में करके सावधान रहने-वाला चतुर एवं धीर पुरूष काबू में किये हुए घोड़ों से रथी की भांति सुखपूर्वक संसारपथ का अतिक्रमण करता है। शिक्षा न पाये हुए तथा काबू में न आने वाले घोड़े जैसे मूर्ख सारथि को मार्ग में मार गिराते हैं, वैसे ही ये इन्द्रियां वश में न रहनेपर पुरूष को मार डालने में भी समर्थ होती हैं। इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण अर्थको अनर्थ और अनर्थ को अर्थ समझकर अज्ञानी पुरूष बहुत बड़े दु:ख को भी सुख मान बैठता है। जो धर्म ओर अर्थ का परित्‍याग करके इन्द्रियों के वश में हो जाता है, वह शीघ्र ही ऐश्र्वर्, प्राण, धन तथा स्‍त्री से हाथ धो बैठता है। जो अधिक धन का स्‍वामी होकर भी इन्द्रियों पर अधिकार नहीं रखता, वह इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण ही ऐश्र्वर्य से भ्रष्‍ट हो जाता है। मन, बुद्धि और इन्द्रियों को अपने अधीन कर अपने से ही अपने आत्‍मा को जानने की इच्‍छा करे; क्‍योंकि आत्‍मा ही अपना बंधु ओर आत्‍मा ही अपना शत्रु है। जिसने स्‍वयं अपने आत्‍म को ही जीत लिया है, उसका आत्‍मा ही उसका बंधु है। वही आत्‍मा जीता गया होने पर सच्‍चा बंधु ओर वही न जीता हुआ होने पर शत्रु है। राजन्! जिस प्रकार सूक्ष्‍म छेदवाले जाल में फंसी हुई दो बड़ी-बड़ी मछलियां मिलकर जाल को काट डालती हैं, उसी प्रकार ये काम और क्रोध- दोनों विवेक को लुप्त कर देते हैं। जो इस जगत् में धर्म तथा अर्थ का विचार करके विजय- साधन-सामग्री का संग्रह करता है, वही उस सामग्री से युक्त होने के कारण सदा सुखपूर्वक समृद्धिशाली होता रहता है। जो चित्त के विकारभूत पांच इन्द्रियरूपीभीतरी शत्रुओं-को जीते बिना ही दूसरे शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसे शत्रु पराजित कर देते हैं। इन्द्रियों पर अधिकार न होने के कारण बडे़-बडे़ साधु भी अपने कर्मों से तथा राजालोग राज्य के भोगविलासों से बंधें रहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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