महाभारत वन पर्व अध्याय 179 श्लोक 43-54

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एकोनाशीत्यधिकशततम (179) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोनाशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 43-54 का हिन्दी अनुवाद

उस समय कंकड बरसानेवाली रूखी और प्रचण्ड वायु बह रही थी और पशु पक्षियोंके सम्पूर्ण शब्द दाहिनी ओर हो रहे थे। पीछेकी ओरसे काला कौवा 'जाओ जाओ' की रट लगा रहा था और उनकी दाहिनी बांह बार बार फडक उठती थी। उनके हदय तथा बायें पैरमें पीडा होने लगी। बायीं आंखमें अनिष्टसूचक विकार उत्पन्न हो गया। भारत ! परम बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरने भी अपने मनमें महान् भय मानते हुए द्रौपदीसे पूछा-भीमसेन कहां है ? द्रौपदी ने उतर दिया-'उनको यहांसे गये बहुत देर हो गयी'-यह सुनकर महाबाहु महाराज युधिष्ठिर महर्षि धौम्यके साथ उनकी खोजके लिये चल दिये। जाते समय उन्होंने अर्जुनसे कहा-'द्रौपदी की रक्षा करना। फिर उन्होंने नकुल ओर सहदेवको ब्राह्मणोंकी रक्षा एवं सेवाके लिये आज्ञा दी। शक्तिशाली कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने उस महान् वनमें भीमसेनके पदचिह्न देखते हुए उस आश्रमसे निकलकर सब ओर खोजा। पहले पूर्व दिशामें जाकर हाथियोंके बड़े-बड़े यूथपतियोंको देखा। वहांकी भूमि भीमसेनके पद चिह्नोंसे चिहिंत थी। वहांसे आगे बढ़नेपर उन्होंने वनमें सैकड़ों सिंह और हजारों अन्य हिंसक पशु पृथ्वीपर पड़े देखे। देखकर भीमसेनके मार्गका अनुसरण करते हुए राजाने उसी वनमें प्रवेश किया। वायुके समान वेगशाली वीरवर भीमसेनके शिकारके लिये दौडनेपर मार्गमें उनकी आंखोंके आघातसे टूटकर पडे हुए बहुतसे वृक्ष दिखायी दिये। तब उन्हीं पदचिह्नोंके सहारे जाकर उन्होंने पर्वतकी कन्दरामें अपने भाई भीमसेनको देखा, जो अजगरकी पकडमें आकर चेष्टाशून्य हो गये थे। उक्त पर्वतकी कन्दरामें विशेष रूपसे वायु चलती थी। वह गुफा ऐसे वृक्षोंसे ढकी थी, जिनमें नाममात्रके लिये भी पते नहीं थे। इतना ही नहीं, वह स्थान उसर, निर्जल, कांटेदार वृक्षोंसे भरा हुआ, पत्थर, ठूंठ और छोटे वृक्षोंसे व्याप्त अत्यन्त दुर्गम ओर उंचा-नीचा था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजगरपर्वमें युधिष्ठिरको भीमसेनके दर्शनसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ उनासीवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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