महाभारत विराट पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-13

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नवम (9) अध्‍याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

महाभारत: विराट पर्व: अष्टम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में रनिवास में जाकर रानी सुदेष्णा से वार्तालाप करना और वहाँ निवास करना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर पवित्र मन्द मुसकान और कजरारे नेत्रों वाली द्रौपदी ने अपने सुन्दर, महीन, कोमल और बड़े-बड़े, काले एवं घुंघराले केशों की चोटी गूँथकर उन मृदुल अलकों को दाहिेने भाग में छिपा दिया और एक अत्यन्त मलिन वस्त्र धारण करके सैरन्ध्री का वेश बनाये वह दीन-दुखियों की भाँति नगर में विचरने लगी। उसे इधर-उधर भटकती देख बहुत सी स्त्रियाँ और पुरुष उसके पास दौड़े आये और पूछने लगे- ‘तुम कौन हो ? और क्या करना चाहती हो ? राजेन्द्र ! उनके इस प्रकार पूछने पर द्रौपदी ने उनसे कहा - ‘मैं सैरन्ध्री हूँ। जो मुझे अपने यहाँ नियुक्त करना चाहे, उसी के यहाँ में सैरन्ध्री का कार्य करना चाहती हूँ और इसीलिये यहाँ आयी हूँ।’ उसके रूप, वेष और मधुर वाणी से किसी को यह विश्वास नहीं हुआ कि यह दासी है और अन्न-वस्त्र के लिये यहाँ उपस्थित हुई है। इतने में ही राजा विराट की अत्यन्त प्यारी भार्या केकय राजकुमारी सुदेष्णा ने, जो अपने महल पर खड़ी हुई नगर की शोभा निहार रही थी, वहीं से द्रुपदकुमारी को देखा। वह एक वस्त्र धारण किये थी एवं अनाथा सी जान पड़ती थी। ऐसे दिव्य रूप वाली तरुणी को उस अवस्था में देखकर रानी ने उसे अपने पास बुलाया और पूछा- ‘भद्रे ! तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो ?’ ‘राजेन्द्र ! तब द्रौपदी ने रानी सुदेष्णा से कहा- ‘में सैरन्ध्री हूँ। जो मुझे अपने यहाँ नियुक्त करना चाहे, उसके यहाँ रहकर मैं सैरन्ध्री का कार्य करना चाहती हूँ और इसीलिये यहाँ आयी हूँ’। सुदेष्णा ने कहा- भामिनि ! तुम जैसा कह रही हो, उसपर विश्वास नहीं होता, क्योंकि तुम्हारी जैसी रूपवती स्त्रियाँ सैरन्ध्री (दासी) नहीं हुआ करती। तुम तो बहुत सी दासियों और नाना प्रकार के बहुतेरे दासों को आज्ञा देने वाली रानी जैसी जान पड़ती हो। तुमहारे गुल्फ ऊँचे नहीं हैं, दोनों जाँघें सटी हुई हैं। तुम्हारी नाभि, वाणी और बुद्धि तीनों में गम्भीरता है। नाक, कान, आँख, नख और घाँटी इन छहों अंगों में ऊँचाई है। हाथों और पैरों के तलवे, आँख के कोने, ओठ, जिव्हा ओर नख- इन पाँचों अंगों में स्वाभाविक लालिमा है। हंसों की भाँति मणुर और गद्गद वाणी है। तुम्हारे केश काले और चिकने हैं। स्तन बहुत सुन्दर हैं। अंगकान्ति श्याम है। नितम्ब और उरोज पीन हैं। ऊपर कही हुई प्रत्येक विशेषता से तुम सम्पन्न हो। काश्मीरदेश की घोड़ी के समान तुममें अनेक शुभ लक्षण हैं। तुम्हारे नेत्रों की पलकें काली और तिरछी हैं। ओष्ठ पके हुए बिम्बफल के समान लाल हैं। कमर पतली है। गर्दन शंख की शोभा को छीने लेती है। नसें मांस से ढंकी हुई हैं तथा मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा को लज्जित कर रहा है। तुम रूप में उन्हीं लक्ष्मी के समान हो, जिनके नेत्र शरद् ऋतु के विकसित कमलदल के समान विशाल हैं, जिनके अंगों से यारत्कालीन कमल की सी सुगन्ध फैलती रहती है तथा जो यारद्ऋतु के कमलों का सेवन करती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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