महाभारत शल्य पर्व अध्याय 62 श्लोक 23-45

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द्विषष्टितमअध्यायः (62) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: द्विषष्टितमअध्यायःअध्याय: श्लोक 23-45 का हिन्दी अनुवाद

भरतनन्दन! अब आगे समयानुसार जो कार्य प्राप्त हो उसे शीघ्रकर डालिये। पहले गाण्डीवधारी अर्जुन के साथ जब मैं उपलव्य नगर में आय था; उस समय मेरे लिये मधुपर्क अर्पित करके आपने मुझसे यह बात कही थी कि श्रीकृष्ण ! यह अर्जुन तुम्हारा भाई और सखा है। प्रभो! महाबाहो! तुम्हें इसकी सब आपत्तियों से रक्षा करनी चाहिये। आपने जब ऐसा कहा, तब मैंने तथास्त कहकर वह आज्ञा स्वीकार कर ली थी। जनेश्वर! राजेन्द्र! आपका वह शूरवीर, सत्यपराक्रमी भाई सव्यसाची अर्जुन मेरे द्वारा सुरक्षित रहकर विजयी हुआ है तथा वीरों का विनाश करने वाले इस रोमांचकारी संग्राम से भाइयों सहित जीवित बच गया है । महाराज ! श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर के शरीर में रोमांच हो आया। वे उनसे इस प्रकार बोले । युधिष्ठिर ने कहा- शत्रुमर्दन श्रीकृष्ण! द्रोणाचार्य और कर्ण ने जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सह सकता था। साक्षात वज्रधारी इन्द्र भी उसका आघात नहीं सह सकते थे । आपकी ही कृपा से संशप्तकगण परास्त हुए हैं और कुन्ती कुमार अर्जुन ने उस महासमर में जो कभी पीठ नहीं दिखायी है, वह भी आपके ही अनुग्रह का फल है । महाबाहो! आपके द्वारा अनेकों बार हमारे कार्यों की सिद्धि हुई है और हमें तेज के शुभ परिणाम प्राप्त हुए हैं । उपलव्य नगर में महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन ने मुझसे कहा था कि जहाँ धर्म है, वहां श्रीकृष्ण हैं और जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है । भारत !युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर पाण्डव वीरों ने आपके शिविर में प्रवेश करके खजाना, रत्नों की ढेरी तथा भण्डार-घर पर अधिकार कर लिया । चांदी, सोना, मोती, मणि, अच्छे-अच्छे आभूषण, कम्बल (कालीन), मृगचर्म, असंख्य दास-दासी तथा राज्य के बहुत से सामान उनके हाथ लगे । भरतश्रेष्ठ ! नरेश्वर ! आपके धन का अक्षय भण्डार पाकर शत्रुविजयी महाभाग पाण्डव जोर-जोर से हर्षध्वनि करने लगे । वे सारे वीर अपने वाहनों को खेलकर वहीं विश्राम करने लगे। समस्त पाण्डव और सात्यकि वहां एक साथ बैठे हुए थे । महाराज ! तदनन्तर महायशस्वी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने कहा- आज की रात में हम लोगों को अपने मंगल के लिये शिविर से बाहर ही रहना चाहिये । तब बहुत अच्छा कहकर समस्त पाण्डव और सात्यकि श्रीकृष्ण के साथ अपने मंगल के लिये छावनी से बाहर चले गये । नरेश्वर ! जिनके शत्रु मारे गये थे, उन पाण्डवों ने उस रात में पुण्यसलिला ओधवती नदी के तट पर जाकर निवास किया । तब राजा युधिष्ठिर ने वहां समयोचित कार्य का विचार किया और कहा- शत्रुदमन माधव! एक बार क्रोध से जलती हुई गान्धारी देवी को शान्त करने के लिये आपका हस्तिनापुर में जाना उचित जान पड़ता है। महाभाग ! आप युक्ति और कारणों सहित समयोचित बातें कहकर गानधारी देवी को शीघ्र ही शान्त कर सकेंगे । हमारे पितामह भगवान व्यास भी इस समय वहीं होंगे;। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर पाण्डवों ने यदुकुलतिलक भगवान श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजा। प्रतापी वासुदेव दारूक को रथ पर बिठाकर स्वयं भी बैठे और जहां अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र थे, वहां पहुंचने के लिये बड़े वेग से चले । शैव्य और सुग्रीव नामक अश्व जिनके वाहन हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण के जाते समय पाण्डवों ने फिर उनसे कहा-प्रभो! यशस्विनी गान्धारी के देवी के पुत्र मारे गये हैं; अतः आप उस दुखिया माता को धीरज बंधावें । पाण्डवों के ऐसा कहने पर सात्वत वंश के श्रेष्ठ पुरूष भगवान श्री कृष्ण जिनके पुत्र मारे गये थे, उन गान्धारी देवी के पास हस्तिनापुर में शीघ्र जा पहुंचे ।

इस प्रकार श्री महाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदापर्व में पाण्डवों का भगवान श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजनाविषयक बासठवां अध्याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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