महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 2 श्लोक 18-35
द्वितीय (2) अध्याय: सौप्तिक पर्व
इस प्रकार जो पुरूष इस मत का अनादर करके इसके विपरीत बर्ताव करता है अर्थात जो दैव और पुरूषार्थ दोनों के सहयोग को न मानकर केवल एक के भरोसे ही बैठा रहता है वह अपना ही अनर्थ करता है यही बुद्धिमानों की नीति है । पुरूषार्थहीन दैव अथवा दैवहीन पुरूषार्थ- इन दो ही कारणों से मनुष्य का उद्योग निष्फल होता है। पुरूषार्थ के बिना तो यहाँ कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । जो दैव को मस्तक झुकाकर सभी कार्यों के लिये भली-भांति चेष्ठा करता है वह दक्ष एवं उदार पुरूष असफलताओं का शिकार नहीं होता । यह भली-भांति चेष्ठा उसी की मानी जाती है जो बड़े-बूढों की सेवा करता है उनसे अपने कल्याण की बात पूछता है और उनके बताये हुए हितकार वचनों का पालन करता है । प्रतिदिन सवेरे उठ-उठकर वृद्धजनों द्वारा सम्मानित पुरूषों से अपने हित की बात पूछनी चाहियेय क्योंकि वे अप्राप्त की प्राप्ति कराने वाले उपाय के मुख्य हेतु हैं। उनका बताया हुआ वह उपाय ही सिद्धि का मूल कारण कहा जाता है । जो वृद्ध पुरूषों का वचन सुनकर उसके अनुसार कार्य आरम्भ करता है वह उस कार्य का उत्तम फल शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है । अपने मन को वश में न रखते हुए दूसरों की अवहेलना करने वाला जो मानव राग क्रोध भय और लोभ से किसी कार्य की सिद्धि के लिये चेष्ठा करता है वह बहुत जल्दी अपने ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है । दुर्योधन लोभी और अदूरदर्शी था। उसने मूर्खतावश न तो किसी का समर्थन प्राप्त किया और न स्वयं ही अधिक सोच-विचार किया। उसने अपना हित चाहने वाले लोगों का अनादर करके दुष्टों के साथ सलाह की और सबके मना करने पर भी अधिक गुणवान पाण्डवों के साथ वैर बांध लिया । पहले भी वह बड़े दुष्ट स्वभाव का था । धैर्य रखना तो वह जानता ही नहीं था। उसने मित्रों की बात नहीं मानी इसलिये अब काम बिगड़ जाने पर पश्चा्ताप करता है । हम लोग जो उस पापी का अनुसरण करते हैं इसीलिये हमें भी यह अत्यन्त दारूण अनर्थ प्राप्त हुआ है । इस संकट से सर्वथा संतप्त होने के कारण मेरी बुद्धि आज बहुत सोचने-विचारने पर भी अपने लिये किसी हितकर कार्य का निर्णय नहीं कर पाती है। जब मनुष्य मोह के वशीभूत हो हिताहित का निर्णय करने में असमर्थ हो जाय तब उसे अपने सुह्दों से सलाह लेनी चाहिये । वहीं उसे बुद्धि और विनय की प्राप्ति हो सकती है और वहीं उसे अपने हित का साधन भी दिखायी देता है । पूछने पर वे विलक्षन हितैषी अपनी बुद्धि से उसके कार्यों के मूल कारण का निश्चय करके जैसी सलाह दें वैसा ही उसे करना चाहिये । अत हम लोग राजा धृटराष्ट्र गान्धारी देवी तथा परम बुद्धिमान विदुरजी के पास चलकर पूछें । हमारे पूछने पर वे लोग अब हमारे लिये जो श्रेयस्कर कार्य बतावें वहीं हमें करना चाहिये मेरी बुद्धि का तो यही दृढ़ निश्चय है । कार्य को आरम्भ न करने से कहीं कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है परंतु पुरूषार्थ करने पर भी जिनका कार्य सिद्ध नहीं होता है वे निश्चय ही दैव के मारे हुए हैं । इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ।
इस प्रकार श्री महाभारत सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा और कृपाचार्य संवाद विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ।
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