महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 14-32

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प्रथम (1) अध्याय: सौप्तिकपर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व :प्रथम अध्याय: श्लोक 14-32 का हिन्दी अनुवाद

ओह ! जिसने अकेले ही मेरे पूरे-के-पूरे सौ पुत्रों का वध कर डाला उस भीमसेन की बातों को मैं कैसे सुन सकूँगा। संजय ! मेरे पुत्र ने मेरी बात न मानकर महात्मान विदुर के कहे हुए वचन को सत्य कर दिखाया । तात संजय ! अब यह बताओ कि मेरे पुत्र दुर्योधन के अधर्मपूर्वक मारे जाने पर कृतवर्मा कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने क्या किया । संजय ने कहा- राजन ! आपके पक्ष के वे तीनों वीर वहां से थोड़ी ही दूर पर जाकर खड़े हो गये। वहां उन्‍होंने नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से भरा हुआ एक भयंकर वन देखा । उस स्थान पर थोड़ी देर तक ठहर कर उन सब लोगों ने अपने उत्त म घोड़ों को पानी पिलाया और सूर्यास्तक होते-होते वे उस विशा वन में जा पहुँचेए जहां अनेक प्रकार के मृग और भॉंति-भाँति के पक्षी निवास करते थेए तरह-तरह वृक्षों और लताओं ने उस वन को व्या प्ता कर रखा था और अनेक जाति के सर्प उसका सेवन करते थे । उसमें जहां- तहाँ अनेक प्रकार के जलाशय थे भांति-भांति पुष्प उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे शत-शत रक्ति कमल और असंख्यत नीलकमल वहां जलाशयों में सब ओर छा रहे थे । उस भयंकर वन में प्रवेश करके सब ओर दृष्ठि डालने पर उन्हें सहस्त्रों शाखाओं से आच्छांदित एक बरगद वृक्ष दिखायी दिया । राजन ! मनुष्यों श्रेष्ठ उन महारथियों ने पास जाकर उस उत्त‍म वनस्पति; बरगद को देखा । प्रभो ! वहां रथों से उतरकर उन तीनों ने अपने घोड़ों को खोल दिया और यथोचित रूप से स्नापन आदि करके संध्योपासना की । तदनन्तर सूर्यदेव के पर्वत श्रेष्ठ अस्ताचल पर पहुँच जाने पर धाय की भांति सम्पूार्ण जगत को अपनी गोद में विश्राम देने वाली रात्रिदेवी का सर्वत्र आधिपत्य हो गया। सम्पूर्ण ग्रहों नक्षत्रों और ताराओं से अलंकृत हुआ आकाश जरी की साड़ी के समान सब ओर से देखने योग्य प्रतीत होता था । रात्रि में विचरने वाले प्राणी अपनी इच्छा के अनुसार उछलकूद मचाने लगे और जो दिन में विचरने वाले जीव-जन्तु थे वे निद्रा के अधीन हो गये । रात्रि में घूमने-फिरने वाले जीवों का अत्यन्त भयंकर शब्द प्रकट होने लगा। मांसभक्षी प्राणी प्रसन्न हो गये और वह भयंकर रात्रि सब ओर व्याप्ति हो गयी। रात्रि का प्रथम प्रहर बीत रहा था। उस भयंकर बेला में दुख और शोक से संतप्त हुए कृतवर्मा कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा एक साथ ही आस-पास बैठ गये । वटवृक्ष के समीप बैठकर कौरवों तथा पाण्डेव योद्धाओं के उसी विनाश की बीती हुई बात के लिये शोक करते हुए वे तीनों वीर निद्रा से सारे अंश शिथिल हो जाने के कारण पृथ्वी पर लेट गये। उस समय वे भारी थकावट से चूर-चूर हो रहे थे और नाना प्रकार के बाणों से उनके सारे अंग क्षत-विक्षत हो गये थे । तदनन्ततर कृपाचार्य और कृतवर्मा- इन दोनों महारथियों को गाढी नींद ओ गयी। वे सुख भोगने के योग्य थे दुख पाने के योग्य। कदापि नहीं थे तो भी धरती पर ही सो गये थे । महाराज । बहुमूल्यओं शय्या एवं सुख सामग्री से सम्पन्न होने पर भी उन दोनों वीरों को परिश्रम और शोक से पीड़ित हो अनाथ की भांति पृथ्वी पर ही पड़ा देख द्रोण पुत्र अश्वत्थामा क्रोध और अमर्ष के वशीभूत हो गया। भारत ! उस समय उसे नींद नहीं आयी । वह सर्प के समान लंबी सांस खींचता रहा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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