भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 27

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5.गुरू कृष्ण

उसके अन्दर ब्रह्म की अनिवार्यता भी है और साथ ही अस्तित्वमान् होने का विकार या परिवर्तन भी है।[१]माया वह शक्ति है, जो उसे परिवर्तनशील प्रकृति को उत्पन्न करने मे समर्थ बनाती है। यह ईश्वर की शक्ति या ऊर्जा या आत्मविभूति है; अपने-आप को अस्तित्वमान् बनाने की शक्ति। इस अर्थ में ईश्वर और माया परस्पराश्रित हैं, और आदिहीन हैं।[२] गीता में भगवान् की इस शक्ति को माया कहा गया है।[३](3) क्योंकि परमात्मा अपने अस्तित्व के दो तत्त्वों, प्रकृति और पुरूष, भौतिक तत्त्व और चेतना द्वारा संसार को उत्पन्न कर सकता है, इसलिए वे दोनों तत्त्व भी परमात्मा की (उच्चतर और निम्नतर) माया कहे जाते हैं। [४](4) क्रमशः माया का अर्थ निम्नतर प्रकृति हो जाता है, क्योंकि पुरूष को तो वह बीज बताया गया है। जिसे भगवान् संसार की सृष्टि के लिए प्रकृति के गर्भ में डालता है। (5) क्योंकि यह व्यक्त जगत् वास्तविकता को मत्‍ये प्राणियों की दृष्टि से छिपाता है, इसलिए इसे भी भ्रामक ढंग का बताया गया है।[५]यह संसार कोई भ्रान्ति नहीं है, यद्यपि इसे परमात्मा से असम्बद्ध केवल प्रकृति का यान्त्रिक निर्धारण समझ लेने के कारण हम इसके दैवीय तत्त्व को समझने में असमर्थ रहते हैं। तब यह भ्रान्ति का कारण बन जाता है। दैवीय माया अविद्या माया बन जाती है। परन्तु यह केवल हम मर्त्‍यों के लिए, जो सत्य तक नहीं पहुँच सकते, अविद्या माया है; परन्तु परमात्मा के लिए, जो सब-कुछ जानता है और इसका नियन्त्रण करता है, यह विद्या माया है। ऐसा लगता है कि परमात्मा माया के एक विशाल आवरण में लिपटा हुआ है।1 (6) क्योंकि यह संसार परमात्मा का एक कार्य-मात्र है और परमात्मा इसका कारण है और क्योंकि सभी जगह कारण कार्य की अपेक्षा अधिक वास्तविक होता है, इसलिए यह संसार, जो कि कार्य-रूप हैं, कारण-रूप परमात्मा की अपेक्षा कम वास्तविक कहा जाता है। संसार की यह आपेक्षिक अवास्तविकता अस्तित्वमान् होने की प्रक्रिया की आत्मविरोधी प्रवृत्ति द्वारा पुष्ट हो जाती है। अनुभव के जगत् में विरोधी वस्तुओं में संघर्ष चलता रहता है और वास्तविक (ब्रह्म) सब विरोधों से ऊपर है।2


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9, 19
  2. देखिए शाण्डिल्य सूत्र, 2, 13 और 15; श्वेताश्वतर उपनिषद्, 4, 10
  3. 18, 61; 4, 6
  4. 4, 16
  5. 7, 25 और 14

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